Atmadharma magazine - Ank 350
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९९ आत्मधर्म : २३ :
२२०. शरीरथी, रागथी लाभ माने तो शुं
थाय?
तो ते रागथी ने शरीरथी छूटी शके
नहि, ने वीतरागी मोक्षमार्गमां
आवी शके नहि; एटले संसारमां ज
रहे.
२२१. सम्यग्द्रष्टिने अशुभभाव होय त्यारे?
– त्यारे पण ते अंतरात्मा छे.
२२२. मिथ्याद्रष्टि शुभभाव करतो होय
त्यारे?
– त्यारे पण ते बहिरात्मा छे.
२२३. राग वखते अंतरात्मानी चेतना केवी
छे? त्यारे पण तेनी चेतना रागथी
अलिप्त ज छे.
२२४. व्यवहाररत्नत्रयवाळो अज्ञानी केवो
छे?
अव्रती – जघन्य – अंतरात्माथी पण
ते हलको छे; तेनुं स्थान मोक्षमार्गमां
नथी.
२२प. सम्यग्द्रष्टिनी परिणति केवी छे?
कोई अद्भुत – आश्चर्यकारी छे; ज्ञान
वैराग्यसंपन्न छे.
२२६. अविरत – सम्यग्द्रष्टिने केटली
कर्मप्रकृति नथी बंधाती?
तेने कुल ४३ कर्मप्रकृति तो बंधाती ज
नथी (४१ + २)
२२७. अविरत सम्यग्द्रष्टिने संयम छे?
ना; संयम नथी, पण संयमनी
भावना निरंतर वर्ते छे.
२२८. नानामां नाना सम्यग्द्रष्टिनी
आत्मश्रद्धा केवी छे?
सिद्ध भगवान जेवी.
२२९. कुंदकुंददेवे मोक्षप्राभृतमां सम्यग्द्रष्टिने
केवो कह्यो छे?
‘ते धन्य छे, कृतकृत्य छे, शूरवीर
छे, पंडित छे. ’
२३०. सर्वज्ञ – परमात्मानी जेने श्रद्धा नथी
ते जीव केवो छे?
ते जीव बहिरात्मा छे, गृहीत
मिथ्याद्रष्टि छे.
२३१. सर्वज्ञनो खरो स्वीकार कोण करे छे?
ज्ञानद्रष्टिवंत सम्यग्द्रष्टि ज
सर्वज्ञनो खरो स्वीकार करे छे.
२३२. सर्वज्ञना स्वीकारमां शुं– शुं आवे छे?
अहा! सर्वज्ञना स्वीकारमां तो
ज्ञानस्वभावनो स्वीकार छे; ते
धर्मनो मूळ पायो छे, तेमां तो
अपूर्व तत्त्वज्ञान छे; राग ने
ज्ञाननी भिन्नतानो अनुभव छे.
२३३. सर्वज्ञता केवी छे?
अहो! एनी शी वात! ए तो
अतीन्द्रिय ज्ञानरूप छे. महा
आनंदरूप छे, राग–द्वेष वगरनी छे,
विकल्पातीत एनो महिमा छे.
२३४. शरीर होवा छतां सर्वज्ञपणुं होई
शके? – हा.