Atmadharma magazine - Ank 350
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: २६ : आत्मधर्म : मागशर : २४९९
धर्मात्मा – संतो कहे छे के अहो! चैतन्यनी शांतिने अनुभववी ते अमारो
अरे, आवी चैतन्यसंपदाने एकवार लक्षमां तो ल्यो! तेमां लक्षने जोडतां
महाआनंदरूप समाधि थशे. अहा, आत्मामां उपयोग जोडतां जे कोई अद्भुत शांति
अमने अनुभवाय छे तेनी शी वात!
आनंदना अनुभवनी खास सामग्री
हवे आवी अपूर्व शांतिना अनुभव माटेनी सामग्री धर्मीना अंतरमां केवी छे?
ईन्द्रियोथी पार चैतन्यस्वरूप आत्मानी आराधनामां तत्परता, तेमां
उपयोगनी सन्मुखता, ते ज संयम – नियम – अध्यात्मतप अने ध्यान छे. – आवी
खास सामग्री वडे जे पोताना आत्माने ध्यावे छे ते जीवने निर्विकल्प समाधिनुं परम
सुख अनुभवाय छे. परिणति अंर्तस्वरूपमां लीन थई, एटले ते अंदर ऊंडी – ऊंडी
ऊतरी गई एम कहेवाय छे. विकल्पवडे चैतन्यमां प्रवेश थतो न हतो, विकल्पातीत
चैतन्यपरिणतिवडे अंदर स्वभावनो अनुभव थयो, तेने ‘ऊंडो – ऊंडो’ कहेवाय छे.
बाह्यवलण छोडीने अंदरना