Atmadharma magazine - Ank 350
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : मागशर : २४९९
अहो, सिद्धभगवंतोनुं
अचिंत्य सुख!
(प्रवचनसार गा. १३ उपर प्रवचन: जयपुर जेठ सुख ४–प सं. २०२७)
शुद्धोपयोग वडे केवळज्ञानने साधीने महावीरादि
भगवंतो अपूर्व महा आनंदमय सिद्धपदने पाम्या... अहो,
ए अतीन्द्रियसुखनी शी वात! भगवंतोए ते सुखनो मार्ग
जगतने उपदेश्यो. अने ते ज मार्ग कुंदकुंदाचार्य वगेरे
वीतरागी संतोए परमागमोमां प्रसिद्ध कर्यो छे.
आत्माना परम सुखने माटे सम्यग्द्रर्शन – ज्ञान –चारित्र कर्तव्य छे; ए त्रणे
शुद्धोपयोगमां समाय छे. ते माटे रागादि साथेनी एकता तोडीने ज्ञानानंदस्वरूपमां
एकता करवी ते पहेलुं कर्तव्य छे. ते करतां ज अंतरमांथी परम शांतिनुं झरणुं आवे छे.
सम्यग्द्रर्शन उपरांत चारित्रदशामां निर्विकल्प शुद्धोपयोग, ते अनंत आनंद रूप
केवळज्ञाननुं कारण छे. अहो! शुद्धोपयोगवडे जेओने केवळज्ञान प्रसिद्ध थयुं छे तेमना
परम सुखनी शी वात! ते सुख आत्मामांथी जे उत्पन्न छे, ईंद्रियविषयोथी पार छे,
अनुपम छे, अनंत छे अने विच्छेद वगरनुं छे. अहो, आत्माना आवा सुखनी प्रतीत
करतां आत्माना स्वभावनी प्रतीत थाय छे, ने बहारमांथी बधेथी सुखबुद्धि छूटी जाय छे.
जुओ, आवा सुखनुं कारण शुद्धोपयोग ज छे, बीजुं कोई साधन नथी.
शुद्धोपयोगमां पोताना ज्ञानस्वभावनुं ज आलंबन छे, तेथी पोताना असाधारण
ज्ञानस्वभावने ज कारणपणे अंगीकार करतां केवळज्ञान अने परमसुख थाय छे.