ज्यां मिथ्यात्व छे त्यां संसारतत्त्व ज छे; ते जीव दुःखी ज छे.
नहि. शुभाशुभने छोडीने अने शुद्धोपयोगने आत्मसात् करीने केवळीभगवंतो अनंत
आत्मसुखने पाम्या छे. ते शुद्धोपयोगना फळनी प्रशंसा करीने आचार्यदेव भव्य
जीवोने तेमां प्रोत्साहित करे छे.... अहो, आवा सुखनी वात सांभळता पण भव्य
जीवने प्रोत्साहन चडे छे के वाह! आवा सुखना कारणरूप शुद्धोपयोग ज मारे कर्तव्य
छे. शुद्धोपयोगवडे थतुं आवुं अतीन्द्रिय परमसुख ज मारे प्रार्थनीय छे; ए सिवाय
संसारमां बीजुं कांई, शुभ–पुण्य के तेना फळरूप स्वर्गादि पण ईच्छवायोग्य नथी,
केमके तेमां कांई आत्मानुं सुख नथी; पुण्यमां लीन थयेला जीवो पण आकुळतानो
अग्निमां ज बळी रह्या छे, ने दुःखी छे. सुखी तो शुद्धोपयोगी जीवो ज छे.
कषायभावो अपास्त करवा जेवा छे, छोडवा जेवा छे.
छे ज नहीं. बहारना पदार्थो तो सदा माराथी छूटा जुदा ज छे, तेनुं ग्रहण के त्याग
मारामां नथी. ज्ञान अने सुखस्वरूप मारो आत्मा छे, तेमां उपयोगनी एकाग्रता थई
त्यां शुभाशुभ पण छूटी गया ने परम वीतराग सुखनो अनुभव रह्यो. पोते स्वयं
आवा शुद्धोपयोगरूप थईने आचार्यदेव कहे छे के अहो, आवी शुद्धोपयोगदशा ज
परम प्रशंसनीय छे.
शुद्धोपयोग द्वारा अपनेकी आपरूप अनुभव करते ह
मुनिओ