Atmadharma magazine - Ank 350
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९९ आत्मधर्म : २९ :
छे. मिथ्यात्व ते संसारतत्त्व ज छे. कोई जीव भले पंचमहाव्रतादि पाळतो होय तोपण
ज्यां मिथ्यात्व छे त्यां संसारतत्त्व ज छे; ते जीव दुःखी ज छे.
आत्मानुं अतीन्द्रियसुख ते ज साचुं सुख छे; ने शुभाशुभ उपयोग छोडीने
आवुं सुख पमाय छे. शुभाशुभने जे कर्तव्य माने ते कदी आत्मानुं सुख पामी शके
नहि. शुभाशुभने छोडीने अने शुद्धोपयोगने आत्मसात् करीने केवळीभगवंतो अनंत
आत्मसुखने पाम्या छे. ते शुद्धोपयोगना फळनी प्रशंसा करीने आचार्यदेव भव्य
जीवोने तेमां प्रोत्साहित करे छे.... अहो, आवा सुखनी वात सांभळता पण भव्य
जीवने प्रोत्साहन चडे छे के वाह! आवा सुखना कारणरूप शुद्धोपयोग ज मारे कर्तव्य
छे. शुद्धोपयोगवडे थतुं आवुं अतीन्द्रिय परमसुख ज मारे प्रार्थनीय छे; ए सिवाय
संसारमां बीजुं कांई, शुभ–पुण्य के तेना फळरूप स्वर्गादि पण ईच्छवायोग्य नथी,
केमके तेमां कांई आत्मानुं सुख नथी; पुण्यमां लीन थयेला जीवो पण आकुळतानो
अग्निमां ज बळी रह्या छे, ने दुःखी छे. सुखी तो शुद्धोपयोगी जीवो ज छे.
शुद्धोपयोगरूप थयेलो आत्मा ते ज धर्म छे; ते ज सुखी छे; ते ज केवळ ज्ञान
अने मोक्षने साधे छे. तेनी प्राप्ति माटे, चेतनाथी भिन्न एवा अशुभ के शुभ बधाय
कषायभावो अपास्त करवा जेवा छे, छोडवा जेवा छे.
हुं तो जगतनो साक्षी, स्वयं सुखनो पिंडलो छुं. तेमां आकुळता केवी? मारा
सुखना अनुभव माटे हुं कोई बीजाने ग्रहण करुं के कोईने छोडुं – एवुं मारा स्वरूपमां
छे ज नहीं. बहारना पदार्थो तो सदा माराथी छूटा जुदा ज छे, तेनुं ग्रहण के त्याग
मारामां नथी. ज्ञान अने सुखस्वरूप मारो आत्मा छे, तेमां उपयोगनी एकाग्रता थई
त्यां शुभाशुभ पण छूटी गया ने परम वीतराग सुखनो अनुभव रह्यो. पोते स्वयं
आवा शुद्धोपयोगरूप थईने आचार्यदेव कहे छे के अहो, आवी शुद्धोपयोगदशा ज
परम प्रशंसनीय छे.
मुनिधर्म तो शुद्धोपयोगरूप छे; रागरूप कांई मुनिधर्म नथी. पं. श्री.
टोडरमलजी मुनिनुं स्वरूप बतावतां लखे छे के जो विरागी होकर, समस्त
परिग्रहका त्याग करके शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करके, अंतरमें
शुद्धोपयोग द्वारा अपनेकी आपरूप अनुभव करते ह
ैं.... आवी मुनिदशा छे; आवी
मुनिदशा वगर मोक्ष थतो नथी. अहा, धन्य एनो अवतार! धन्य एनुं जीवन! ते
मुनिओ