: ३४ : आत्मधर्म : मागशर : २४९९
अहा, आवो सुंदर वीतरागमार्ग! ... ए तो स्वाश्रयभाववडे ज शोभे;
पराश्रितभाव तो अशुद्ध छे, ते वीतागमार्गमां शोभता नथी. सम्यक्त्व–ज्ञान–सुख
ईत्यादि अनंत गुणना जे भावो छे ते बधाय आत्माना स्वभावना आश्रये ज छे, ने
ते स्वाश्रित शुद्धपरिणाममां ज सामयिक छे. पराश्रित रागादिभावो तो अशुद्ध छे,
तेमां सामायिक नथी, समता नथी. तेमां तो विषमता छे.
भावी तीर्थाधिनाथ तो आत्माना आश्रये भवभयने हरीने सहज समताने
प्रगट करे छे. शुद्धद्रष्टिवंत भावी–तीर्थंकर आत्मानी ऊर्ध्वता वडे भवभयने हरनारा ने
रागरहित होवाथी अभिराम छे – सुंदर छे, तेना समस्त परिणाम शुद्धात्ममां ज
समीप वर्ते छे, तेथी तेने सहज समतारूप सामायिक वर्ते छे. तीर्थनायकना उत्कृष्ट
उदाहरण वडे बधा सम्यग्द्रष्टि जीवोनी केवो शुद्धद्रष्टिमां केवो शुद्ध आत्मा छे ते
समजाव्युं छे. धर्मात्माना बधाय परिणाममां पोतानो शुद्ध कारणपरमात्मा ज नजीक
छे. निजस्वभावना गाढ आलिंगन वडे तेनी पर्यायो पुष्ट थई छे. आ रीते ते
भाविजिनभगवान निजस्वभावनी समीप थईने परभावोथी परांग्मुख थया, ने
वीतरागी पोते साक्षात् जिन थया.
आ रीते पुराणपुरुषोने याद करीने मुनिराज कहे छे के अहो! अमारा
भगवंतोए आम कर्युं, ने अमे पण ए ज रीते करता करता भगवानना मार्गमां
मुक्तिपुरीमां जई रह्या छीए.
ज्ञानीनी निस्पृह भक्ति
हे जीव! तने ज्ञानीनी निस्पृह भक्ति करतां आवडे छे?
ज्ञानीनी भक्तिना बहाने तुं तारुं मान के प्रसिद्धि तो नथी
पोषतो ने?
ज्ञानी प्रत्येनी निस्पृह भक्तिनो संबंध अंदर ज्ञान साथे
छे. ए भक्ति कांई जगतने देखाडवा माटे नथी; ए भक्तिमां
तो अंदरमां निजगुणना पोषणनो हेतु छे; ने ज्ञानीना गुणो
प्रत्येनी अनुमोदना छे.
जो तने गुणनी लब्धि न देखाती होय, ने राग–द्वेषनी
पुष्टि ज थती होय तो तुं समज के तने हजी ज्ञानीनी भक्ति
करतां आवडती नथी, तें ज्ञानीना गुणने ओळख्या नथी.