Atmadharma magazine - Ank 350
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९९ आत्मधर्म : ३५ :
चिन्मूरत दगधारीकी मोहे रीति लगत है अटापटी....
बाहिर नारकी कृत दुःख भोगे, अंतर सुखरस गटागटी...
रमत अनेक सुरनि संग पै तिस परिणति तें नित हटाहटी...
ज्ञान–विराग शक्ति तें विधिफल भोगत पै विधि घटाघटी.....
सदन निवासी तदपि उदासी तातें आस्रव छटाछटी...
जे भवहेतु अबुध के ते तस करत बंधकी झटाझटी...
नरक – पशु – तिय – षंड – विकलत्रय प्रकृतिनकी है कटाकटी...
संयम धर न शके पै संयम – धारनकी उर चटाचटी..
तास सुयश गुणकी दौलतको लगी रहे नित रटारटी...
अहो, चैतन्यमूर्ति आत्मानी द्रष्टिना धारक सम्यग्द्रष्टिनी दशा कोई अटपटी
आश्चर्यकारक लागे छे.
कोई जीव नरकमां सम्यगद्रष्टि होय, बहारमां तो तेने नारकीओ द्वारा घोर
दुःख थतुं होय पण अंतरमां ते ज वखते भिन्न चेतनामां तेने आत्माना सुखरसनी
गटागटी चाले छे; जेम शेरडीनो रस गटक–गटक पीए तेम अंदर चेतनामां सुखरसनी
गटागटी चाले छे. – एवी सम्यग्द्रष्टिनी परिणति अटपटी छे.
कोई जीव स्वर्गमां सम्यग्द्रष्टि होय, त्यां बहारमां तो अनेक देवीओ साथे ते
क्रीडा करतो होय, ते प्रकारनो राग पण होय, छतां ते परिणतिथी तेने सदा हटाहटी छे,
एटले के धमी नी चेतना तो तेनाथी जुदी ने जुदी ज रहे छे, – एवी धर्मीनी विचित्र
परिणति छे. अनेक प्रकारनां कर्मफळ भोगववा छतां, ज्ञान–वैराग्यशक्तिना बळे तेने
कर्म सदाय घट्या ज करे छे; सदननिवासी एटले गृहवासी होवा छतां अंतरमां
तेनाथी उदासीनता छे तेथी आस्रवनी तेने छटाछटी छे, – आस्रवो छूटता ज जाय छे.
अज्ञानीने जे क्रियाओ भवनो हेतु थाय छे ते ज क्रियाओ अंतरनी चैतन्य द्रष्टिने लीधे
सम्यग्द्रष्टिने बंधनी झटाझटी करे छे –अर्थात् तेने निर्जरा ज थाय छे.
नरकगति, तिर्यंचगति, स्त्रीपर्याय, नपुंसकपर्याय, विकलत्रय वगेरे ४१
प्रकृतिनी तो सम्यग्द्रष्टिने निरंतर कटाकटी थई गई छे, ते ४१ – प्रकृति तो तेने
बंधाती ज नथी.