बाहिर नारकी कृत दुःख भोगे, अंतर सुखरस गटागटी...
रमत अनेक सुरनि संग पै तिस परिणति तें नित हटाहटी...
ज्ञान–विराग शक्ति तें विधिफल भोगत पै विधि घटाघटी.....
सदन निवासी तदपि उदासी तातें आस्रव छटाछटी...
जे भवहेतु अबुध के ते तस करत बंधकी झटाझटी...
नरक – पशु – तिय – षंड – विकलत्रय प्रकृतिनकी है कटाकटी...
संयम धर न शके पै संयम – धारनकी उर चटाचटी..
तास सुयश गुणकी दौलतको लगी रहे नित रटारटी...
गटागटी चाले छे; जेम शेरडीनो रस गटक–गटक पीए तेम अंदर चेतनामां सुखरसनी
गटागटी चाले छे. – एवी सम्यग्द्रष्टिनी परिणति अटपटी छे.
एटले के धमी नी चेतना तो तेनाथी जुदी ने जुदी ज रहे छे, – एवी धर्मीनी विचित्र
परिणति छे. अनेक प्रकारनां कर्मफळ भोगववा छतां, ज्ञान–वैराग्यशक्तिना बळे तेने
कर्म सदाय घट्या ज करे छे; सदननिवासी एटले गृहवासी होवा छतां अंतरमां
तेनाथी उदासीनता छे तेथी आस्रवनी तेने छटाछटी छे, – आस्रवो छूटता ज जाय छे.
अज्ञानीने जे क्रियाओ भवनो हेतु थाय छे ते ज क्रियाओ अंतरनी चैतन्य द्रष्टिने लीधे
सम्यग्द्रष्टिने बंधनी झटाझटी करे छे –अर्थात् तेने निर्जरा ज थाय छे.
बंधाती ज नथी.