Atmadharma magazine - Ank 350
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: २: आत्मधर्म : मागशर : २४९९
भाव सिवाय कोधादि कोई भावोने जरापण पोतापणे अनुभवतो नथी. एटले तेनो
कर्ता थतो नथी. आ रीते ज्ञानवडे ज क्रोधादिनुं कर्तापणुं छूटी जाय छे. चैतन्यना
ज्ञेयपणे जणातो राग, तेनो स्वाद तो चैतन्यथी जुदो छे, पण अज्ञानी ते रागना
स्वादने चैतन्यना स्वादमां भेळवीने एम अनुभवे छे के हुं चैतन्य अने आ
क्रोधादिभावो मारुं कार्य; –एम मानीने चैतन्य अने राग बंनेने एकमेकपणे ते
अनुभवे छे.
अरे भाई! क्यां तारी चैतन्यजात! ने कयां रागनी जात! तेमने कर्ता–कर्म
पणानो संबंध मानवो ते तो अनुचित छे, चैतन्यमां ते रागनुं कर्तृत्व शोभतुं नथी.
चैतन्य –अमृतरूप भगवान आत्मा, ते मरेलां जड कलेवरनो कर्ता थाय – ए ते कांई
एने शोभे छे? जेम मनुष्यने भूत वळग्युं होय त्यां ते मनुष्यनी चेष्टा ज बधी
बदलाईने भूत जेवी बिहामणी भयंकर तेनी चेष्टा थई जा्रय, ए ते कांई मनुष्यने
शोभे छे? – ना, ए तो अमानुषी व्यवहार छे, ते कांई मनुष्यने उचित व्यवहार
नथी. तेम शांत – निर्विकार चैतन्यप्रभु, तेनी चेष्टाओ तो शांत चैतन्यभाव रूप होय,
तेने बदले ‘हुं क्रोध’ एवा मिथ्यात्वरूप भूतने लीधे ते अनेक प्रकारना राग – द्वेष –
पुण्य – पाप– क्रोधादि भावोनी चेष्टा करे छे ने ते भावरूपे पोताने अनुभवे छे.
आचार्यदेव कहे छे के अरे भाई! आवुं भूत तने क्यांथी वळग्युं? चैतन्यनुं अमृत
अने रागनुं झेर ए बेमां एकमेकपणानी दुर्बुद्धि तने क्यांथी थई? अरे जीव! तारा
निर्विकार चैतन्यनी चेष्टामां क्रोधादि विकारनुं कर्तृत्व केम शोभे? वाणीयाना मोढामां
मांस ते कांई शोभे? कदी न शोभे तेम चैतन्यना भावमां विकारनुं कर्तृत्व कदी शोभतुं
नथी. छतां माने तो ते अज्ञान छे. क्रोधादिभावोनी चेष्टा ते कांई चैतन्यने माटे योग्य
नथी. माटे हे भाई, तुं चैतन्य अने क्रोधने अत्यंत जुदा जाणीने अज्ञानमय चेष्टाओने
छोड.
वळी जेम कोई अज्ञानी पाडानुं ध्यान करतां – करतां एवो तल्लीन थई गयो
के ‘हुं मोटा शींगडांवाळो मोटो पाडो छुं’ एम पोताने पाडारूपे ज अनुभववा लाग्यो,
एटले ओरडाना बारणामांथी जाणे हुं बहार नहीं नीकळी शकुं – एम तेने थई गयुं.
जोके ते मनुष्य छे ने बारणामांथी बहार नीकळी शके तेवो छे, पण अज्ञानने लीधे
पोताने पाडो ज मानीने ओरडामां पूराई रहे छे. तेम अज्ञानी ईन्द्रिय अने मनना
विषयरूप परद्रव्यने जाणतां तेना विकल्पोमां एवो तल्लीन थई गयो के ‘हुं जाणनारो
शुद्ध चैतन्यधातु ज छुं” ए वात भूलीने, विकल्पोरूपे ज पोताने अनुभवतो थको तेमां
ज शुद्धचैतन्यधातुने रोकी दीधी. खरेखर तो पोते चैतन्यधातु छे ने