Atmadharma magazine - Ank 350
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९९ आत्मधर्म : ३ :
विकल्पोथी बहार जुदो ज रहेवानो तेनो स्वभाव छे, पण पर ज्ञेयोमां मूर्छाई ने
पोताना ज्ञानने ढांकी दीधुं, ने अज्ञानी थईने ‘हुं क्रोध, हुं शरीर’ एम अज्ञानभावनो
कर्ता थाय छे.
ज्यां भेदज्ञान थाय त्यां अज्ञानजनित कर्तापणुं छूटी जाय छे. भेदज्ञानवडे
धर्मीजीव पोताना आत्माने चैतन्यरसपणे अनुभवे छे. रागथी तद्न जुदी जातनो
अपूर्व चैतन्यरस चाख्यो त्यां कषायना कषायेलारसने पोताथी तद्न जुदा जाण्या.
क्रोधादिने जाणतां के धर्मास्ति वगेरे अचेतनने जाणतां, ‘ते क्रोधादि हुं नहीं,
चैतन्यरसपणे जे स्वादमां आवी रह्यो छे ते ज हुं छुं’ – एम निरंतर पोताने
चैतन्यस्वादरूपे ज धर्मी अनुभवे छे.
अहीं तो चैतन्यरसना स्वाद उपरथी ज धर्मी–अधर्मीनुं माप छे. विकल्पोथी
जुदा पोताना चैतन्यस्वादने जे अनुभवे छे. ते जीव धर्मी छे. अने शुभराग– व्रतादि
करवा छतां तेनाथी भिन्न चैतन्यरसना स्वादने जे अनुभवतो नथी ते जीव अधर्मी
छे. अरे भाई! तारा चैतन्यरसनो स्वाद केवो मधुर छे – एनीये तने खबर नथी ने
क्रोधादिना विकारी रसपणे ज तुं पोताने अनुभवे छे – ए तो तने मोहनुं भूत वळग्युं
छे.
जेने कषायरसथी अत्यंत जुदा मधुर चैतन्यरसनी खबर नथी ते ज अनेक
विकल्पोना स्वादने आत्मारूपे अनुभवतो थको तेनो कर्ता थाय छे. चैतन्यनो मधुररस
जेणे चाख्यो ते समस्त विकल्पोना रसने पोताथी तद्न जुदो विलक्षण जाणतो थको, ते
विकल्पने जरापण करतो नथी चैतन्यरसमां विकल्प नथी, एटले विकल्प वखतेय
ज्ञानी पोताना चैतन्यरसथी भ्रष्ट थता नथी, चैतन्यरसपणे ज ते पोताने निरंतर
अनुभवे छे. एककोर मृतककलेवर लीधुं, बीजीकोर अत्यंत मधुर चैतन्यरसथी भरेलो
अमृतस्वरूप भगवान आत्मा लीधो. – अज्ञानी अमृतस्वरूप विज्ञानघन भगवानने
भूलीने मृतककलेवरमां (जडमां ने रागमां) मूर्छित थयो छे; ज्ञानी अत्यंत मधुर
चैतन्यरसना स्वाद पासे आखा जगतना स्वादने पोताथी भिन्न जाणे छे.
अरे, लोकोमां एक आंख काणी होय तो शरमाईने तेने ढांके छे; तो अरे
भाई! अहीं शुभाशुभविकल्पो तो चैतन्यथी जुदा आंधळा छे, ते आंधळा भावरूपे
पोताने अनुभवतां तने शरम केम नथी आवती? विकल्पोथी लाभ मानीने तेना
वेदनमां रोकायो त्यां तारा भेदज्ञानचक्षु बीडाईने तुं आंधळो थयो. ते अंधपणुं केम
टळे ने तारा भेदज्ञानचक्षु केम खूले – तेनी आ रीत संतो समजावे छे. चैतन्यस्वाद