भेदज्ञानशक्ति ऊघडी जा्रय छे; त्यारे ते ज्ञानीधर्मात्मा एम जाणे छे के अहा, आवो
चैतन्यरस पूर्वे कदी में चाख्यो न हतो; आ अपूर्व चैतन्यस्वादपणे अनादिअनंत
निरंतर मारो आत्मा अनुभवाय छे; आवा चैतन्यरसमां अतीन्द्रिय आनंद भर्यो छे;
आ स्वाद पासे रागादि बधा भावो बेस्वाद छे, मारा चैतन्यस्वादमां परभावनो कोई
स्वाद नथी. विषयोनो अशुभस्वाद, के भक्ति वगेरे शुभरागनो स्वाद, ते बधायनी
जातथी मारो चैतन्यरस जुदी ज जातनो छे. आवा चैतन्यरस साथे कषायरसनुं
एकपणुं मानवुं ते तो अज्ञानथी ज छे. ज्ञानीने पोताना ज्ञानरसमां कोईपण प्रकारना
रागनी एकता भासती नथी, रागथी जुदी ने जुदी ज्ञानरसनी धारा तेना अंतरमां
निरंतर वहे छे. अनंत अतीन्द्रिय आनंदनो खजानो अंतरमां भेदज्ञानवडे तेने खूली
गयो छे. ते ठांसोठांस भरेला चैतन्यना आनंदमां हवे कोई सूक्ष्म विकल्प पण समाय
नहीं. निरंतर एक सहज ज्ञान ज हुं छुं, कृत्रिम क्रोधादि कषायभावो ते हुं नथी – एम
धर्मी अनुभवे छे. ‘क्रोध – रागादि हुं छुं’ एवी आत्मबुद्धि ते जरापण करतो नथी.
थईने अंतर्मुहूर्तमां केवळज्ञान पाम्या.
करी नांख्या, अहा, क्यां चैतन्यनी शांति! ने क्यां क्रोधादिनी आकुळता!! तेने
एकमेकपणे ज्ञानी केम अनुभवे? चैतन्यनी शांतिमां कषायनो अग्निकण केम समाय?
– आवुं स्पष्ट भिन्नपणुं भेदज्ञानवडे अनुभवमां आवे त्यारे जीव ज्ञानी थयो कहेवाय,
अने ते ज्ञानी आनंदमय ज्ञानचेतनारूप विधानघनपणे ज वर्ततो थको, रागादि सर्वे
परभावोनो अत्यंत अकर्ता ज छे. आ रीते अत्यंत मधुर चैतन्यरसना स्वादथी
भरेला भेदज्ञान वडे ज रागादिना कर्तापणानो नाश थाय छे –ए वात सिद्ध थई
अहो, आत्मामां भरेलो आवो सरस चैतन्यस्वाद, तेनी मीठासनी शी वात!
भेदज्ञानवडे हे जीव! तुं तारा चैतन्यरसने एकवार चाख तो खरो. तने तारो आखो
आत्मा परम अतीन्द्रिय आनंदरूपे अनुभवाशे.