Atmadharma magazine - Ank 350
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९९ आत्मधर्म : ५ :
ज्ञानीना ज्ञानमां परनुं निमित्तकर्तापणुं पण नथी.
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परनुं निमित्तकर्तापणुं अज्ञानीना क्रोधादिभावोमां छे.
ज्ञानभावरूपे परिणमतां ते निमित्तकर्तापणुं पण छूटी जाय
छे. भाई, तारुं स्वरूप केवुं छे तेनो तुं विचार तो कर. तो
तने ख्यालमां आवशे के आमां परनुं कर्तुत्व कोई रीते
समाई शके तेम नथी. अरे, विकारनुं कर्तृत्व पण जेमां न
समाय तेमां परना कर्तृत्वनी तो वात ज केवी?
वस्तुस्वरूपनी स्वतंत्रता अने परथी भिन्नता समज्या
वगर एककेय वात साची समजाय नहीं.
(समयसार गा. १०० उपरना प्रवचनमांथी)
चैतन्यस्वरूप आ आत्मा परद्रव्यनो कर्ता कोई रीते नथी. हवे अशुद्ध एवा
योग ने उपयोग कर्ममां निमित्त छे पण ज्ञानीनी शुद्धचेतना तो ते अशुद्ध
योगउपयोगथी जुदी छे एटले ज्ञानी तो निमित्तपणे पण कर्मनो कर्ता नथी. अशुद्ध
रागादिभावोनो कर्ता अज्ञानी थाय छे, पण परद्रव्यनो कर्ता तो कोई आत्मा नथी
ज्ञानभाव के अज्ञानभावे परनुं कर्तृत्व कोईने नथी. अज्ञानभावमां पोताना रागादि
विकारनुं कर्तापणुं छे, ने ज्ञानभावमां विकार रहित पोताना शुद्धभावनुं ज कर्तापणुं छे.
कर्ताकर्मनुं स्वरूप समजवा माटे व्याप्य – व्यापकपणानो महान सिद्धांत छे.
तन्मयपणुं होय त्यां ज व्याप्य – व्यापकपणुं होय, ने ज्यां व्याप्य – व्यापकपणं
होय त्यां ज कर्ता – कर्मपणुं होय. कर्ता पोते पोताना कार्यमां प्रसरीने ते रूपे थाय
छे. माटीना रजकण पोते घडारूप कार्यमां प्रसरीने ते – रूप थाय छे तेथी ते तेनो
कर्ता छे. पण जो कुंभार तेने करे तो ते कुंभार पोते घडारूप थई जाय, एटले
कुंभारनुं अस्तित्व ज