Atmadharma magazine - Ank 351
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४९९ आत्मधर्म : ९ :
चैतन्यभावने विकल्प साथे कर्ताकर्मपणुं नथी
धर्मात्मा समस्त राग–विकल्पोथी भिन्न एवा
चैतन्यभावरूप थईने पोताने चैतन्यभावरूपे ज अनुभवे छे.
रागथी भिन्न एवा ते चैतन्यभावने रागादि साथे कांई संबंध
रह्यो नथी. ज्ञान अने रागनी अत्यंत भिन्नाताना आवा
भानपूर्वक धर्मीजीव पोतामां अपार समयसारने अनुभवे छे –
तेनुं आनंदकारी वर्णन छे.... अनुभूतिनां गंभीर रहस्योने ते
प्रसिद्ध करे छे.
आ सम्यग्द्रर्शननो अधिकार छे. सम्यग्द्रष्टि जीव आत्माने केवो अनुभवे छे ते
अहीं बतावे छे. १४४ मी गाथा पहेलांंनो कळश ९२ मो वंचाय छे.
आत्मा चित्स्वभाव छे; तेना उत्पाद–व्यय–ध्रुव त्रणे चित्स्वभावथी ज थाय छे.
चित्स्वभाववडे ज उत्पाद–व्यय–ध्रुव कराय छे, एटले चैतन्यना उत्पादमां – व्ययमां के
ध्रुवमां क््यांय परद्रव्य के विकल्प नथी, पर वडे के विकल्प वडे कांई चैतन्यना उत्पाद
व्यय– ध्रुव कराता नथी; चैतन्यभावना उत्पाद– व्यय– ध्रुवने रागादि साथे कर्ता –
कर्मनो संबंध नथी; एटले धर्मीजीव कर्ता थईे पोताना चैतन्यना उत्पाद – व्यय – ध्रुवने
करे छे पण रागादिने ते करतो नथी.
भाई, चैतन्यभावथी भरेलो भगवान तुं छो; तेनी द्रष्टि कर. बाकी बीजा
बधाने भूली जा. शरीर–मकान वगेरेने तो तुं करतो नथी, रागादिने पण करवानुं तारा
चैतन्य भावमां नथी. च्ैतन्यस्वभावने अनुभवनार धर्मीजीवने ‘हुं शुद्ध छुं’ एवा
विकल्पनोय पक्ष नथी एटले तेनुं कर्तापणुं नथी. मारी चैतन्यवस्तु पुण्य – पाप
विनानी चीज छे, एवा चैतन्यस्वभावपणे पोताने लक्षमां लीधो त्यां उत्पाद–व्यय –
ध्रुव त्रणे चैतन्यरूप थया, राग – विकल्प तेमां न आव्या. जे पर्याये चैतन्यस्वभावनो
निर्णय कर्यो ते पर्याय पण चैतन्यरूप थई, ने रागथी जुदी थई गई.