Atmadharma magazine - Ank 351
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : पोष : २४९९
पर्याय ज्यारे अंतर्मुख थई त्यारे तेने द्रव्य – पर्याय बंनेनो अनुभव एकसाथे
थाय छे – एम कह्युं. पर्याय अंतर्मुख थई त्यां ध्रुवस्वभावनुं पण भान थयुं. पर्याय
अंतरमां वळ्‌या वगर ध्रुवस्वभावने ज्ञेय कर्यो कोणे? पर्याय अंतर्मुख थई त्यारे मारा
उत्पाद– व्यय– ध्रुव त्रणेमां मारो चैतन्यस्वभाव व्यापे छे एम भान थयुं; एणे
स्वघरने जोयुं. आ द्रव्य ने आ पर्याय एवा भेद के विकल्प अनुभूतिमां नथी. आवी
अभेद निर्विकल्प अनुभूतिसहित सम्यग्द्रर्शन थाय छे.
अहो, आचार्यभगवंतो तो हालता–चालता सिद्ध जेवा हता; तेमनी वाणीमां
अमृत भर्युं छे; तेमणे अनुभवनुं अलौकिक वर्णन कर्युं छे. भाई, अत्यारे आ
समजवानो अवसर छे. आ तारी वस्तुने नहीं समज तो जन्म–मरणना क््यां आरा
आवशे? तारा चैतन्यना उत्पाद–व्यय ध्रुव तो तारा चैतन्यभाववडे कराय के रागवडे
कराय? भाई, आ समजवा माटे बहारनी पैसा – शरीर वगेरेनी क्यां जरूर छे? पैसा
होय, शरीर नीरोग होय तो ज आ समजाय एवुं कांई नथी. पोतानी पर्याय अंतरमां
लई जतां, पोताना चैतन्यभाववडे ज आत्मा समजाय छे. उत्पाद– व्यय – ध्रुव त्रणेरूप
एक वस्तु छे, उत्पाद– व्यय जुदा ने ध्रुव जुदी वस्तु – एम अहीं नथी कहेवुं; उत्पाद–
व्यय – ध्रुव त्रणेथी भावित चैतन्यवस्तु एक छे. पर्याय ध्रुवमां लीन थयेली छे. आवा
स्वघरमां आव्या वगर जीवने शांति नहि आवे. परघरमां शांति मानी छे, पण तेमां
एकलुं दुःख छे. तेमां दुःख अने अशांति लागे तो स्वघर तरफ वळे चैतन्यनी वीतरागी
शांतिने वेदे तो ते शांति पासे तेने पुण्य – पाप अग्निीनी भठ्ठी जेवा लागे. चैतन्यनी
शांतिना वेदन वगर शुभरागनी अशांतिनो खरो ख्याल न आवे.
केवळीभगवान चैतन्यस्वभावपणे रहीने पोताना उत्पाद– व्यय––ध्रुवने करे छे;
तेम साधकधर्मी पण चैतन्यभावपणे ज पोताना उत्पाद – व्यय – ध्रुवने करे छे.
रागादिभावोथी चैतन्यभाव जुदो ज छे, ते राग साथे धर्मीना चैतन्यभावने
कर्ताकर्मपणुं नथी. एक शुद्धनयना विकल्पनुंय कर्तापणुं ज्ञानमां जेने रहे ते तेणे
शुद्धात्मारूप समयसारने अनुभव्यो नथी. शुद्धआत्मा नयोना विकल्पोथी पार, तेमां
विकल्पनुं कर्ताकर्मपणुं केवुं?
‘चैतन्यस्वभाव हुं छुं” एम स्वसन्मुख थईने पर्याय नककी करे छे. पर्याय
स्वसन्मुख थया वगर स्वभावनो निर्णय कर्यो कोणे? अहो, चैतन्यस्वभाव अपार छे–
जेना गुणोनो पार नथी, जेना महिमानो पार नथी, – आवो ‘समयसार’ हुं छुं एम
धर्मी अनुभवे छे. समस्त बंधपद्धत्तिने छोडीने हुं आत्माने अनुभवुं छुं, – एटले