
श्रुतज्ञानना अवलंबनथी नककी करवो. पुण्य – पापना विकल्पो हुं नहीं, हुं तो
ज्ञानस्वभाव छुं – एम पहेलेथी नककी करवुं. भाई! आ देहनो डोलो तो डोली रह्यो छे
– क्षणमां ते पडी जशे. तो तेनाथी भिन्न ज्ञानस्वभाव आत्मा तुं छो – एम नककी कर.
निर्णयमां ल्ये छे. आ विकल्प राखवा जेवो छे – एवो निर्णय नथी कर्यो, पण आ
विकल्प छोडवा जेवो छे, –एम निर्णयमां लीधुं छे, एटले विकल्पथी जुदुं ज्ञान निर्णयमां
लीधुं छे. संतोनो जे उपदेश छे ते पण ज्ञान अने विकल्पनी भिन्नता बतावीने विकल्प
छोडाववा माटे छे. पहेलेथी ज विकल्पथी जुदा ज्ञानस्वभावने लक्षमां लईने उपड्यो छे,
ते जीव विकल्पने ओळंगीने, ज्ञानने अंतर्मुख करीने साक्षात् निर्विकल्प अनुभव करे छे.
संतोनो अभिप्राय विकल्प छोडवानो छे, ने श्रोता पण तेवो अभिप्राय समजीने
सांभळे छे, एटले श्रवणना काळे पण श्रवणना विकल्प उपर तेनुं जोर नथी, पण
‘विकल्पथी पार चैतन्यतत्त्व संतो कहे छे’ ते ध्येय उपर तेनुं जोर जाय छे. आ रीते
ज्ञान अने विकल्पनी भिन्नताना लक्षे उपडेलो जीव विकल्प तोडीने ज्ञानस्वभावनो
अनुभव करे छे.
छोडवा माटे छे – एवो तेनो निर्णय छे; एटले निर्णयमां विकल्पना अवलंबननो
अभिप्राय नथी पण विकल्प छोडीने ज्ञानस्वभावना अवलंबननो ज अभिप्राय छे.
विकल्प हतो ते कांई निर्विकल्प अनुभवनुं कारण नथी; ज्ञानस्वभावनुं अवलंबन
करतां आ विकल्प तूटी जशे – एम तेणे लक्षमां लीधुं छे. ‘ज्ञानस्वभाव छुं’ एवो
निर्णय क्यारे थाय? के विकल्प ते मारा स्वभावनुं कार्य नथी – एम नककी कर्युं त्यारे
ज्ञानस्वभावनो निर्णय थाय छे.