Atmadharma magazine - Ank 351
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : पोष : २४९९
राग पूज्य नथी, ने राग वडे शुद्धात्मानुं खरूं पूजन थतुं नथी. अंतरमां
शुद्धात्मा पोते पोतामां तन्मयपणे जेटलो रागरहित समभावरूप परिणम्यो तेटली तेनी
पूजा – स्तुति – नमन छे. जेने पोते नम्यो तेवी जातनो भाव प्रगट करीने तेमां नम्यो
छे, पण तेनाथी विरुद्ध भाव वडे तेने नमन थतुं नथी.
हे जीव! पहेलांं नककी कर के तने किंमत कोनी छे? शुं जडनी – शरीरनी
लक्ष्मीनी तने किंमत लागे छे? शुं पुण्यनी ने रागनी तने किंमत लागे छे? शुं बहारनां
जाणपणानी के शास्त्रभणतरनी तने किंमत लागे छे? – के ए बधायथी पार तारा
शुद्धचैतन्यतत्त्वनी अनुभूतिनी तने किंमत छे? खरी किंमत पोताना शुद्ध चैतन्यतत्त्वना
अनुभवनी छे; ए अनुभव सिवायनुं बीजुं तो बधुं निःसार छे, एनी कांई ज किंमत
नथी. आखा जगत करतां तने तारा आत्मानी मोटप भासवी जोईए. आत्मानी
मोटप भासे एटले बीजा बधानो रस ऊडी जाय; बहारनां मान–अपमानथी हालक–
डोलक थई जतो होय ते छूटी जाय; अने अंदर चैतन्यना पाताळने फोडीने आनंदनो
धोध ऊछाळे. आवी आनंदनी रेलमछेलमां धर्मीनो आत्मा वर्ते छे. अरे, आवडा मोटा
चैतन्यने चूकीने बहारनी अनुकूळता – प्रतिकूळतामां के मान –अपमानमां जे वेचाई
जतो होय तो आत्माने क््यांथी साधे? आत्मानी गंभीरता जेने भासी नथी, आत्माना
वैभवनो महिमा जेणे देख्यो नथी तेने आत्मानो परम समभाव क््यांथी प्रगटे? अहा,
विशुद्ध चैतन्य महातत्त्वनो परम महिमा जाणतां ज जीवने मुक्तिना उत्तम सुखनो
स्वाद आवे छे, ने आत्मा भवदुःखथी दूर थई जाय छे.
“अहो, आवा परमतत्त्वनी भावनारूपे अमे परिणम्या छीए. आनंदथी भरेला
अमारा निजात्मतत्त्वने अमे जाण्युं छे. रागमां डुबेला जीवोने आवुं परम तत्त्व क््यांथी
देखाय? परम तत्त्व तो आनंदमां डुबेलुं छे, आनंदनी अनुभूति वडे अमे तेने देखीए
छीए. एमां हवे दुःख केवुं? निजात्माना उत्तम सुखने अमे सतत अनुभवीए छीए; ने
भवजनित दुःखथी तो अमे दूर थया छीए.”
(नियमसार कळश ६६ उपरना प्रवचनमांथी)