
मारो आत्मा तो सुखनो भंडार चैतन्यराजा छे; तेने ओळखीने तथा तेनी श्रद्धा करीने,
हवे तेनी ज सेवाथी मारा आत्माने मोक्षनी सिद्धि थशे.
चैतन्यना गंभीर भावोने ते पकडी ल्ये छे. नयपक्षना विकल्पो पण तेने अत्यंत स्थूळ
लागे छे; तेने विकल्पातीत अतीन्द्रिय आनंद होय छे. ते ज्ञानने ईन्द्रियोथी भिन्न जाणे
छे. अने निजरसमां रमतो होय छे. आत्मानी तेने खरेखरी प्रीति लागी होय छे.
संयगोथी तेनुं ज्ञान दबातुं नथी पण ते छूटुं ने छूटुं ज्ञानपणे ज रहे छे. तेथी ते तरतो
छे. पर्वत उपर वीजळी पडे ने बे कटका थाय ते फरी संधाय नहीं तेम भेदज्ञान वडे
स्वानुभूतिरूपी वीजळी पडतां ज्ञान अने रागनी भिन्नता थईने बे कटका जुदा थया,
ते हवे कदी एक थाय नहीं. भेदज्ञान पछीना विकल्पोथी तेनुं ज्ञान जुदुं ज रहे छे; तेनुं
आवा ज्ञानस्वरूप आत्मानी अनुभूति सातमी नरकना प्रतिकूळ संयोगो वच्चे पण
जीव करी शके छे. संयोगनुं लक्ष छोडीने ज्ञाननी दशाने अंतरमां आनंदना दरियामां
वाळी दीधी त्यांसंयोग संयोगमां रह्या, ने आत्मा पोताना आनंदस्वरूपमां आव्यो.
आत्मा अनंता गंभीर भावोथी भरेलो छे. सम्यग्द्रर्शनरूप थयेला आत्मानी अंदरनी
स्थिति खूब ज गंभीर होय छे. हुं ज्ञायकभावथी भरेलो, परम आनंदथी पूरो अने
ईन्द्रियोथी पार एवो महान पदार्थ छुं. चैतन्यतत्त्वथी ऊंची के सुंदर वस्तु बीजी
जगतमां कोई नथी. आत्मानुं वीतरागी सामर्थ्य अचिंत्य छे; एना गुणोनी विशा–