रीत छे, सौथी पहेलांं हितनो मार्ग आ छे. आवा अनुभव वगर बीजा कोईना
अवलंबने आत्मानुं हित थतुं नथी. तारुं कार्य स्वाधीनपणे ताराथी थाय छे. संतोए
अनुभव कर्यो ते जीव हितना पंथे चडयो, ते जीव केवळज्ञान अने सिद्धपदने पात्र
थयो... अने ते ज ‘समयसार’ छे
शुद्धात्मसन्मुख योग भक्ति वडे निर्वाणने पाम्या छे, अने हुं पण ते ज मार्गे जाउं छुं.
जेओ संसारना घोर दुःखोथी भयभीत होय तेओ ज उत्तम भक्ति करो. धर्मी कहे छे के
अहो! निर्मळ सुखकारी एवा धर्मीने अमे गुरुना सान्निध्यमां प्राप्त कर्यो छे. राग–द्वेषनी
परंपराथी जुदा एवा शुद्ध आनंदमय तत्त्वमां अमारी परिणति हवे ढळी छे. अतीन्द्रिय
आनंदना स्वादमां अमारुं चित्त हवे एवुं लोलूप थयुं छे के ईन्द्रिय– विषयोथी ते छूटी
गयुं छे. अमारी परिणतिमां तो सुंदर आनंद झरतुं उत्तम तत्त्व प्रगट्युं छे; आत्मानी
मार्ग छे.
केमके अमे तो मुक्तिनी स्पृहावाळा छीए; भवना सुखथी अमे निस्पृह छीए; जेनाथी
भवना सुख मळे एवा पुण्य अने रागनी पण स्पृहा अमने नथी; तेथी निस्पृह एवा
अमने आ लोकना पेला अन्य पदार्थो साथे शुं प्रयोजन छे? अहो! पोतामां स्वतत्त्वनुं
चैतन्य सुख चाख्युं त्यां हवे बीजानी स्पृहा केम रहे? परमात्मतत्त्वनी आवी आराधना
जेने प्रगटी छे ते स्ववश जीवने मोक्षना कारणरूप भक्ति निरंतर वर्ते छे.