आरसमां) समयसार कोतरवानी मंगल शरूआत थई छे.
अनुभवदशामां झुलतां झुलतां शास्त्र–रचनानो विकल्प आव्यो ने आ समयसारादि
शास्त्रोनी रचना थई गई; तेमां विकल्पनुं के वाणीनुं कर्तृत्व तेमना ज्ञानमां नथी,
ज्ञानना स्व–परप्रकाशक सामर्थ्यमां विकल्प अने वाणी परज्ञेयपणे जणाई जाय छे.
आखो आत्मा आवो आनंदमूर्ति – चैतन्मूर्ति छे’ एवुं धर्मीने भान थाय छे. आ रीते
स्वभावमां एकता ने रागथी भिन्नताना अनुभव सहित आत्मानी जे प्रतीत थई ते
सम्यग्द्रर्शन छे. एवुं स्वरूप आचार्यदेवे आत्माना वैभवथी आ समयसारमां देखाड्युं
छे. धर्मीने रागना काळे ते रागनुं ज्ञान वर्ते छे, एटले धर्मी जीव स्व. परप्रकाशक
ज्ञानपणे वर्ते छे. तेना ज्ञानमां अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप आत्मानो अनुभव वर्ते छे,
अहा, चैतन्यभगवान पूर्णानंदपणे जेने अनुभवमां आव्यो ते सम्यग्द्रर्शननी शी वात!
लोकोने सम्यग्द्रर्शन शुं चीज छे तेनी खबर नथी.
‘विकल्पनुं ज्ञान’ कहेवुं ते व्यवहार छे, खरेखर ज्ञानमां विकल्पनी अपेक्षा नथी. ज्ञानी
विकल्पनो कर्ता नथी. ए वात ९प मां कळशमां आचार्यदेव कहे छे–
न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति ।। ९५ ।।
जीवने ते विकल्पनुं कर्ताकर्मपणुं कदी नाश थतुं नथी. अने ज्ञान थया पछी विकल्पनुं