Atmadharma magazine - Ank 352
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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बंधुओ, आजे आपना हाथमां आत्मधर्मनो हंमेशां करतां नानो
आ अंक मुक्तां जोके थोडो संकोच तो थाय छे छतां पण नानकडा अंक
द्वाराय गुरुदेवना ताजा प्रवचनोनी मधुरी प्रसादी थोडीघणी पण अमे
आपने पहोंचाडी शकीए छीए तेथी संतोष मानीए छीए; ने आपने पण
ते वांचीने जरूर प्रसन्नता थशे.
आम तो संपादकनी तबीयतने कारणे आ अंक बंध राखवानो
विचार करेल, पण घणा जिज्ञासुओ तरफथी लागणीपूर्वक एवी सलाह थई
के हजारो जिज्ञसुओ आत्मधर्म वांचवा ईंतेजार हशे माटे कोईपण रीते
अंक बहार पडे तो सारूं. –अमने पण ए व्याजबी लाग्युं; तेथी जेवडो
बनी शके तेवडो अंक पण बहार पाडवो एम विचारीने मात्र र४ पानांनो
आ अंक आपना हाथमां आपीए छीए. त्रीस वर्षना नियमित प्रकाशनमां
आत्मधर्मनो अंक बंध रहेवानो प्रसंग मात्र एकज वार बन्यो छे. आ
नानो अंक आप एकने बदले बे वार वांचशो तो ओछा पानानुं साटुं वळी
जशे; तेमज अमे पण हवे पछीना अंकोमां विशेष सामग्री आपीने अधूरा
पानांनी खोट पूरी करीशुं.
परम पूज्य गुरुदेवनी मंगल छायामां आनंद–मंगलपूर्वक
आत्मधर्म वधुने वधु प्रगति साधी रह्युं छे. आ वर्षनी शरूआतथी ज
आपणी ग्राहक संख्या त्रण हजारनो आंकडो वटावी चुकी छे–जे अत्यार
सुधीना ३० वर्षमां सौथी वधु छे. मात्र चार रूपियाना लवाजममां आपने
भेटपुस्तक पण मळे छे; ने आत्मधर्म द्वारा जैनधर्मना जे उत्तम वीतरागी
संस्कारो मळे छे ते तो जिज्ञासुओमां घरेघरे प्रसिद्ध छे. आप पण
आत्मधर्म वांचो... तेमां कहेलां तत्त्वने समजो अने उत्तम वीतरागी
धर्मसंस्कार वडे भवभ्रमणथी छूटवानो मार्ग प्राप्त करो... आत्मधर्मना
उत्तम संस्कारो तमने जरूर आत्मानो महान आनंद आपशे.
जय जिनेन्द्र