भाग्य छे. गुरुदेवना प्रतापे सोनगढमां रोज रोज धर्मवृद्धिना मंगलप्रसंगो बन्या करे
छे, ते प्रसंगोमांथी परमागमना साररूप पोताना निजात्मानी अपूर्व भावना प्राप्त
करीने ‘आत्मलाभ’ ते मुमुक्षुनुं कर्तव्य छे. अहो, गुरुदेवनी मंगलछायामां धर्मवृद्धिना
प्रसंगो सुवर्णपुरीमां नितनित बन्या करे छे... तेना समाचार आपतां आनंद थाय छे.
आवो आत्मलाभ देनारा गुरु मळ्या ते धन्य प्रसंग छे.
थयुं छे. नियमसारनी रचना आचार्य भगवाने ‘निजभावना’ अर्थे करी छे... परम
गंभीर चैतन्य परमदेवनी अंतर्मुख भावनानुं तेमां वारंवार ऊंडुं ऊंडुं घोलन कर्युं छे...
ने वीतरागरसने पुष्ट कर्यो छे. एवा आ परमागम द्वारा निजात्मभावनानुं फरी–फरीने
घोलन करतां गुरुदेव पण प्रसन्नचित्तथी वधुने वधु खीलता जाय छे, ने
अध्यात्मरसझरतां प्रवचनो सांभळतां मुमुक्षु श्रोताजनो पण निजात्मानी
सम्यक्भावना प्राप्त करीने आनंदित थाय छे.