: ८ : आत्मधर्म : फागण : र४९९
• अहो, तीर्थंकरदेवना दरबारमांथी आवेली आ वात छे. भाई! तारा स्वरूपनी
आ वात छे. तारुं आवुं परम स्वरूप समजतां तारां स्वकार्य सिद्ध थशे. मोक्षनो
उपाय एटले के निश्चय सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते मुमुक्षुनुं कार्य छे. ते कार्यनुं
कारण थवानी जेनामां ताकात छे एवो सहज शुद्ध चेतनस्वभाव अनंत–
चतुष्टयथी भरेलो त्रिकाळ आत्मा छे. अंतर्मुख थईने तेने अवलंबतां
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप कार्य थयुं–ते मोक्षमार्ग छे. मोक्षने माटे मोक्षाथी
जीवे ते नियमथी कर्तव्य छे.
• व्यवहारने–शुभरागने नियमथी कर्तव्य न कह्युं; ते तो वच्चे आवे छे पण ते
कांई मोक्षनो उपाय नथी. मोक्षनो उपाय तो, रागथी अत्यंत निरपेक्ष छे, तेमां
एकला शुद्ध स्वद्रव्यनुं ज अवलंबन छे, परद्रव्यनुं–रागनुं–भेदनुं तेमां जराय
अवलंबन नथी.
• धर्मी कहे छे के अहो! मारा परम तत्त्वमांथी आवा निरपेक्ष अनुपम रत्नत्रयने
प्राप्त करीने हुं मोक्षना अतीन्द्रियसुखने अनुभवुं छुं. पोताना निज–परम–
तत्त्वनुं अवलंबन ते ज मोक्षना आनंदनो मार्ग छे. अहो, आनंदनो मार्ग
अंदरमां छे, बहारमां कोई बीजाना अवलंबने आनंदनी प्राप्ति थती नथी.
• वाह, जन्म–मरणना दुःखना अंतनी, अने मोक्षना आनंदनी प्राप्तिनी आ रीत
छे. असंग चैतन्यप्रभुनो संग करतां संसारनो रंग छूटी जाय छे ने मोक्षनो
अवसर आवे छे.
• मोक्षमार्गरूप कार्य साधवा माटेनुं कारण जीवना पोताना स्वभावमां ज
विद्यमान छे. ते कारणनो स्वीकार थतां शुद्ध कार्य थयुं छे. आ जे सम्यक्त्वादिरूप
शुद्धकार्य मारामां थयुं–तेनुं शुद्ध–कारण पण मारामां ज विद्यमान छे. –आम जेणे
कारणस्वभावनो स्वीकार कर्यो तेने रागादिमांथी कारणनी बुद्धि छूटी गई छे,
अर्थात् राग मारा रत्नत्रयनुं कारण बने एवो भाव तेने रहेतो नथी; रागथी
भिन्न जे शुद्ध चैतन्यस्वभाव छे तेने ज ते कारणपणे स्वीकारीने तेना आश्रये
शुद्धकार्यरूपे पोते परिणमे छे. मोक्षने माटे आ नियमथी कर्तव्य छे.
• सम्यग्द्रष्टि जीवे परमात्मसुखनो स्वाद चाख्यो छे; ते अतीन्द्रिय परमात्मसुखनी
जे तेने अभिलाषा छे; संयोगनी अनुकूळता के प्रतिकूळता आत्मामां नथी.