Atmadharma magazine - Ank 353
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : र४९९ आत्मधर्म : ११ :
आत्मानुं स्वरूप शुं, लक्षण शुं, अने कार्य शुं, ते मुमुक्षुजीव नक्की करे छे. मारा
आत्माना आश्रये ज मने सुख थशे–एम तेने ख्यालमां आवे छे. त्यारबाद ते चिंतन–
मनन द्वारा गुरुउपदेश साथे पोताना विचारो सरखावे छे; उपदेश अनुसार वस्तु तेने
पोतामां भासती जाय छे. ज्ञानादि स्वगुणोथी पूरो, अने अन्य सर्व पदार्थोथी भिन्न,
कर्म–नोकर्मथी जुदो, रागादि विकारी भावोथी पण जुदी जातनो एवो आत्मस्वभाव,
शुद्ध चैतन्य–आनंदकारी अनंत चैतन्यलक्ष्मीवान हुं ज छुं, एम निजस्वरूपनो निर्णय
करीने तेमां ते ऊंडो ऊतरतो जाय छे.
आवा जीवनी विचारधारा क्षणे क्षणे आत्मसन्मुख थती जाय छे. शास्त्रवांचन
गुरुउपदेश तथा अंतरमां पोताना ज्ञान–विचारना उद्यम वडे तेने पोतानुं
सम्यक्दर्शनरूपी कार्य करवानो घणो ज हर्ष अने उत्साह छे. स्वकार्यने साधवा ते उत्साह
पूर्वक प्रयत्न करे छे, तेमां प्रमाद करतो नथी. तत्त्वविचारना उद्यम वडे तेने स्व परनी
स्पष्ट भिन्नता भासे, अने स्वसंवेदनपूर्वक केवळ पोताना ज्ञानमय आत्मा विषे ज
‘आ हुं छुं’ एवी अहंबुद्धि थाय त्यारे ते जीव सम्यग्द्रष्टि थाय छे. पहेलांं जेम शरीरमां
मिथ्या अहंबुद्धि हती के ‘मनुष्यादि ज हुं छुं’ तेम हवे देहथी भिन्न चैतन्यस्वरूप
आत्मामां स्वानुभवपूर्वक एवी सम्यक् अहंबुद्धि थई के ‘आ चैतन्यपणे अनुभवातो
आत्मा ज हुं छुं. सम्यग्दर्शन थतां अंतरमां ज्ञाननी अनुभूतिपूर्वक आत्माना आनंदनुं
उद्यम कर्यां ज करे–ते जीवनुं कर्तव्य छे; अने त्यां कर्मना स्थिति–अनुभाग वगेरेमां पण
सम्यक्त्व थवाने योग्य फेरफार स्वयमेव थई जाय छे.
देहथी भिन्न चैतन्यमय मारुं अस्तित्व–वस्तुत्व वगेरे अनंत शक्तिओ मारामां
रहेली छे; ज्ञान–आनंदरूपे परिणमन करवुं ते मारो स्वभाव छे. जडना कोई पण
परिणामरूपे हुं थतो नथी, तेथी तेनुं कांई हुं करी शकुं नहीं. आवी विचारधाराथी पर
प्रत्येनो रस ऊडी जाय छे, ने चैतन्य तरफनो रस वधतो जाय छे. हुं असंख्यप्रदेशी एक
अखंड पदार्थ छुं अने मारामां दर्शन–ज्ञान–आनंद वगेरे अनंतगुणो सर्वप्रदेशे ओतप्रोत
थईने रहेलां छे, तेओ ज श्रद्धा–ज्ञान–सुखपर्यायरूपे थाय छे, तेनो कर्ता आत्मा ज छे. –
आम आत्माना स्वभावने जाणे छे अने तेना ध्याननो अभ्यास करे छे. आवा
अभ्यास वडे ते सम्यक्त्वसन्मुख जीव थोडा काळमां सम्यग्दर्शन पामे छे; कोई आ
भवमां ज पामे छे; अगर आ भवना संस्कार लईने ज्यां