: १र : आत्मधर्म : फागण : र४९९
जाय त्यां पामे छे. नरक–तिर्यंचमां पण कोई जीव पूर्वना संस्कार जागृत करीने सम्यक्त्व
पामी जाय छे. मूळ तो अंतरमां स्वरूपसन्मुख थवानो अभ्यास ज सम्यग्दर्शननुं कारण छे.
शुद्धोपयोग चोथा गुणस्थाने कोईक ज वार थाय छे अने थोडो ज काळ रहे छे;
पण तेने जे शुद्धात्मप्रतीत थई छे ते तो निरंतर चालु ज रहे छे. शुद्धोपयोग सिवायना
काळमां आत्मप्रतीतिपूर्वक स्वाध्याय–मनन–जिनपूजा–गुरुसेवा वगेरे शुभ प्रवृत्तिमां
वर्ते छे, तेमज गृहसंबंधी व्यापारादि कार्योमां पण वर्ते छे, पण तेनी द्रष्टिमां आवेलुं
आत्मतत्त्व तो ते बधा रागथी जुदुं ने जुदुं ज रहे छे. आवा सम्यग्दर्शन माटे उद्यमी
जीव साची धगशथी तेना प्रयत्नमां लाग्यो रहे छे. कदाचित् सम्यग्दर्शन जल्दी न थाय
तो वधुने वधु प्रयत्न करे छे, पण तेमां थाकतो नथी. तेमज आकुळ–व्याकूळ बनीने
प्रयत्न छोडी देतो नथी, पण धीरजथी उत्साहथी पोतानुं महान कार्य साधवानो उद्यम
कर्यां करे छे, ने ते साधीने ज जंपे छे.
सम्यग्दर्शन थतां देव–गुरु–शास्त्रनी साची ओळखाण थई होवाथी, तेमनी
उपासनामां परम प्रमोद अने भक्ति आवे छे; साधर्मी प्रत्ये ऊंडुं वात्सल्य,
धर्मप्रभावना अने दानादि पण करे छे. चैतन्यतत्त्वना गंभीर महिमानुं वारंवार परम
प्रेमपूर्वक ऊंडुं घोलन करतां तेने आनंद थाय छे. तेमां जेटला रागना अंशो छे तेने
रागरूपे ज गणीने, ज्ञानथी भिन्न जाणे छे, अने तेथी तेनो कर्ता नहीं बनता
ज्ञायकभावरूपे ज रहे छे.
जेम राजा वगेरे पुण्यवंत पुरुष ज्यां पधारे ते घर तो सुंदर होय, ने तेनुं
आंगणुं पण चोख्खुं होय; तेम त्रणलोकमां श्रेष्ठ एवा सम्यग्दर्शन–राजा जेना अंतरमां
पधार्या तेना अंतरमां स्वघरनी शुद्धतानी तो शी वात! एमां तो शुद्ध चैतन्य परमात्मा
बिराजी रह्या छे, ने तेनुं आंगणुं एटले के बाह्य व्यवहार पण चोख्खो होय छे;
सम्यग्द्रष्टिना शुभपरिणाम पण बीजा करतां जुदी जातना होय छे; तीव्र कलुषतानो तेने
अभाव होय छे.
जेम बाळकने साकरनो स्वाद मीठो लागतां तेने फरीफरीने साकर खावानी
ईच्छा थाय छे, तेम सम्यग्दर्शन वडे एक वार चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदनो मीठो
स्वाद चाख्या पछी धर्मीने फरीफरीने ते आनंद अनुभववानुं मन थाय छे; ते पोतानो
उपयोग फरी–फरीने आत्मा तरफ वाळवा मांगे छे, आत्माना आनंद सिवाय