: १६ : आत्मधर्म : फागण : र४९९
शुद्धज्ञानमां ज छे. – ‘उपयोग उपयोगमां ज छे’ उपयोगमां रागादि जरापण नथी.
आवा भेदज्ञान वडे ज्ञानीने आत्माना अनुभवमां आनंदना वेणला वाया छे.
अहा, वीतरागमार्ग! ए तो अलौकिक ज होय ने! एनुं फळ पण अनंतकाळ सुधी
अनंत आनंदनी प्राप्ति छे. आवो आ मार्ग, ते सांभळवानो ने अंतरमां अनुभव
करवानो आ अवसर मळ्यो छे. आवो मार्ग समजीने आत्मामां सुख प्रगटे ते ज
आत्मानुं जीवन छे. आत्माना सुख वगरनुं जीवन एने ते जीवन कोण कहे? भेदज्ञान
वडे अंतरमां रागथी भिन्न शुद्ध उपयोगना अनुभव वडे अतीन्द्रिय सुखमय साचुं
जीवन धर्मीने प्रगट्युं छे, ते ज खरूं जीवन छे. संवर अधिकारनी शरूआतमां
आचार्यदेवे एवा भेदज्ञानने अभिनंद्युं छे. (भेदविज्ञानं अभिनन्दति...)
नियमसारमां आत्मानो परम स्वभाव बतावतां कहे छे के अहो, आत्माना
परमस्वभावना महिमानी शी वात? परमागमने वलोवी–वलोवीने संतोए चैतन्य
परमतत्त्व बहार काढ्युं छे, देव–गुरु–शास्त्रोए आ परमस्वभावनो महिमा गायो छे.
आवा परम स्वभावने पोताना अंतरमां भेदज्ञानरूप तीक्ष्णबुद्धिवडे उपादेय करीने धर्मी
जीवो तेनी भावना करे छे. जेनी बुद्धि तीक्ष्ण थई छे, – रागथी जुदी थईने
अतीन्द्रियरूपे परिणमीने अंतरस्वभावमां घूसी गई छे–ते जीवने ते तीक्ष्णबुद्धिमां
पोतानो परम आत्मा ज उपादेय छे. रागबुद्धिवाळा जीवो आवा स्वभावने उपादेय
करी शकता नथी.
अहो, मारुं परमात्मतत्त्व सदाय आनंद रसझरतुं छे, शुद्धोपयोग वडे ज तेनी
भावना थाय छे. शुद्धोपयोग वडे निज परमात्मतत्त्वनी सम्यक्भावनामां तत्पर जीवने
नियमथी मोक्षमार्ग होय छे. एने सदाय सुप्रभात छे एटले आनंदनी धारा सदाय वर्ते
छे. अंतरमां अतीन्द्रिय आनंदना स्वाद वगर, बहारमां तो बेसता वर्ष अनंतवार
बेठा, छतां जीव दुःखी ज रह्यो ज्यां सुधी ज्ञानप्रभात ऊगे नहि ने अज्ञानअंधारा टळे
भावना कर. चैतन्यभावनाथी जे आनंदयमय नवुं वर्ष बेठुं, ते एवुं बेठुं के फरी कदी
अंधारुं थाय नहि के दुःख आवे नहीं. आवा परमस्वभावी आत्माने द्रष्टिमां लईने
तेनी भावना करतां मोक्षमार्ग प्रगट्यो अने तेमां देव–गुरु–शास्त्रनी वीतरागी आज्ञा
पण आवी गई. जेणे आवी भावना करी तेणे मोक्षपुरीनो मंगलकुंभ स्थाप्यो.
सहज एक ज्ञायकस्वभावरूप जे पोतानुं परम तत्त्व, तेमां अंतर्मुख श्रद्धा–