: फागण : र४९९ आत्मधर्म : १७ :
ज्ञान–लीनता वडे अभूतपूर्व सिद्धदशा थाय छे. आ अंतर्मुख भावोमां क्यांय रागनुं के
परनुं अवलंबन नथी; एकला स्वतत्त्वमां ते समाय छे.
भाई, आ तारा अपूर्व हितनी वात छे. अंतरमां ऊतरीने जेणे आत्माने शोधी
लीधो छे ते धर्मीजीव आखा जगतथी उदास थई, रागथीये उदास थई, अंतरमां
भवदुःखथी छूटवा मोक्षसुखने साधे छे. हे जीव! अनंतकाळना भवदुःखनी भयंकर
पीडा, तेनाथी छूटवा ने चैतन्यनी साची शांति पामवा तुं तारा अंतरमां राग वगरना
परम चैतन्यतत्त्वने देख. अनंत शुद्धतानो गंज अंदर छे तेना वेदनसहितनी श्रद्धा ते
सम्यग्दर्शन छे.
अरे जीव! तारा तत्त्वनो महिमा कोई परम अद्भुत छे; सिद्धभगवान जेवो
महिमा तारा आत्मामां छे, पुण्यथी तेनो पार पमाय तेम नथी. एनी गंभीरता ने
गहनता, अंतरना स्वानुभववडे ज पार पमाय तेवा छे. चैतन्यना बागमां ज्यां
अतीन्द्रिय आनंदना फूवारा ऊछळे छे–तेमां प्रवेशीने, आनंदधाममां अविचळपणे धर्मी
जीव मोक्षने साधे छे. ते अतीन्द्रिय चैतन्यरसनो स्वादीयो थयो छे, त्यां बाह्य विषयोना
स्वादमां क्यांय तेने चेन पडतुं नथी; विषयोनुं वेदन तो विष जेवुं लागे छे. चैतन्यना
परम अचिंत्य आनंद पासे तेने दुनियानो प्रेम ऊडी गयो छे. तेनी अंतरनी मीठीमधुरी
सम्यक् द्रष्टि निःशंकपणे प्रतीत करे छे के त्रिकाळ सहज स्वभावमां मने सहज ज्ञान–
सहजद्रष्टि अने सहजचारित्र सदाय जयंवत वर्ते छे; अने सहज शुद्धचेतना पण
अमारा परमतत्त्वमां सुस्थितपणे सदा जयवंत वर्ते छे. अमारा आत्मामां आवी सहज
चेतनाने अमे सदा जयवंत देखीए छीए, तेमां क्यांय रागादि परभावो जयवंत नथी.
आत्मानो परम गंभीर महिमा जेवो छे तेवो ज संतो बतावे छे. जे सत् ‘छे’ तेनाथी
वधारे कोई नथी कहेता, अहा, चैतन्यना महिमानी शी वात! अंतरना अनुभव वगर
एना महिमानो पार पमाय तेम नथी. आत्मानो साक्षात् अनुभव थतां परभावो जुदा
रही जाय छे, चैतन्यनी शांतिना अनुभवमां ते एकमेक थता नथी, केमके तेनी जात
तद्न जुदी छे, तेना अंशो तद्न जुदा छे. आवी अपूर्व आत्मशांतिनुं वेदन ते
जिनवाणीना अभ्यासनुं फळ छे. (वचनामृत वीतरागमां... परम शांतरस–मूळ,)
वीतराग सर्वज्ञ परमात्माए कहेलां परमागम आत्माना शांत चैतन्यरसथी
भरेलां छे. भव्यजीवोए पीवायोग्य अमृत ते परमागममां भर्युं छे; –केमके ते परमागम
रागादिथी अत्यंत जुदुं परम निरपेक्ष चैतन्यतत्त्व देखाडे छे, ते तत्त्वनी सन्मुख थतां ज