Atmadharma magazine - Ank 353
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : र४९९ आत्मधर्म : र३ :
भाई! विचार तो कर के– रूपिया, मकान, मोटर वगेरे पदार्थो तो जीवतत्त्व छे?
–के अजीव? ए तो अजीव छे. तो शुं अजीवमां कदी सुख होय? ना; एनामां सुख कदी
छे ज नहि, तो ते तने क्यांथी सुख आपे? माटे अजीवमां–परमां सुखबुद्धि छोड.
हवे ते अजीव तरफना वलणनो तारो भाव, (–पछी ते अशुभ हो के शुभ)
तेमां पण आकुळता ने दुःख ज छे, तेमां कांई चैतन्यना आनंदनुं वेदन तो नथी. – माटे
ते परलक्षी शुभाशुभभावोमांय सुखबुद्धि छोडी दे.
सुखथी भरेलो तारो आत्मस्वभाव, तेमां उपयोग जोडतां ज स्वलक्षे
परमआनंद अनुभवाय छे.
जुओ, साततत्त्वने जाणवामां आ वात आवी जाय छे. –
* ;
* तेनी सन्मुखताथी आनंद अनुभवाय तेमां संवर–निर्जरा–मोक्ष आव्या.
* ;
* तेनी सन्मुखताथी आकुळता अनुभवाय छे–तेमां पुण्य–पाप–आस्रव ने बंध
आवी गया.
आ रीते तत्त्वोनुं पृथक्करण करीने समजे तो मोक्षमार्गनो साचो निर्णय थया
वगर रहे नहीं. जीवतत्त्व केवुं छे तेनी आ वात चाले छे. विदेहक्षेत्रोमां देह सहित
अरिहंत भगवंतो सदाय बिराजे छे, अहीं भरतक्षेत्रमां पण अढीहजार वर्ष पहेलांं
अरिहंत भगवान साक्षात् विचरता हता, ते भगवंतोए जीवादि तत्त्वनुं जेवुं स्वरूप
कह्युं तेवुं ज्ञानीसंतोए झील्युं, जाते अनुभव्युं अने शास्त्रमां कह्युं; ते ज अहीं कहेवाय
छे. आचार्यदेवे कह्युं छे के ‘जीवादि नवतत्त्वोने भूतार्थथी जाणवा ते सम्यग्दर्शन छे’ त्यां
भूतार्थद्रष्टि करतां ज तेमां शुद्धआत्मानी प्रतीत आवी, ने नवतत्त्वना विकल्प छूटी
गया. शुद्धद्रष्टिमां नव भेद नथी, तेमां तो एकलो शुद्धात्म भगवान ज आनंदसहित
प्रकाशमान छे; ने आवा आत्मानी द्रष्टिपूर्वक नवतत्त्वनी प्रतीतनुं आ वर्णन छे. एकला
नवतत्त्व गोख्या करे ने तेना विकल्पने अनुभव्या करे पण जो शुद्धआत्माने द्रष्टिमां न
ल्ये तो तेने सम्यग्दर्शन थतुं नथी, ते तो बहिरात्मा ज रहे छे. अहीं तो अंतरात्मा
थयेलो जीव, विकल्पोथी छूटो पडीने नवतत्त्वने जेम छे तेम जाणे छे.