Atmadharma magazine - Ank 353
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: र४ : आत्मधर्म : फागण : र४९९
तेनी वात छे. तेने शुद्धात्मामां ज स्वामीत्वबुद्धि वर्ते छे. निश्चयश्रद्धाना विषयमां नव
भेद न आवे, तेमां तो एकला निजरूपनी ज श्रद्धा छे. जेम राजानी साथेना बीजा
माणसोने देखीने तेमने पण ‘आ राजा आव्यो’ एम उपचारथी कहेवाय छे; खरेखरो
राजा तो ते नथी, जुदो छे, तेम शुद्धआत्मानी द्रष्टिरूप निश्चय सम्यक्त्व ते तो
मोक्षमार्गमां राजा समान छे; पण तेनी साथे नवतत्त्वनी प्रतीतने देखीने तेने पण ‘आ
सम्यग्दर्शन छे’ एम उपचारथी कहेवाय छे, खरेखरुं सम्यग्दर्शन तो ते नथी, जुदुं छे.
पण तेनी साथे नवतत्त्वनी श्रद्धा वगेरेना जे विकल्पो होय छे ते व्यवहारमां बताव्या
बताव्या छे तेनाथी विरुद्ध मान्यता धर्मीने होय नहीं. अहो, आ तो निश्चय–व्यवहारनी
संधिवाळो अलौकिक जिनमार्ग छे, – वीतराग भगवंतो जे मार्गे चाल्या ते मार्गे
जवानी आ वात छे. एनी शरूआत वीतरागद्रष्टि वडे थाय छे, राग वडे तेनी शरूआत
थती नथी.
जेणे पोताना श्रद्धा–ज्ञानमां पूर्ण ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने झील्यो छे,
अनुभूतिवडे अंतरमां पोताना परमात्मस्वरूपने अनुभव्युं छे ते अंतरात्मा
मोक्षमार्गमां चालनारा छे; ते पोतानी पर्यायने पण जाणे छे. पहेलांं अज्ञानदशामां
बहिरात्मपणुं हतुं, त्यारे हुं एकांत दुःखी हतो; ते दशा टळीने हवे अंतरात्मपणुं थयुं छे
ने आत्मानुं साचुं सुख अंशे अनुभवमां आव्युं छे; हवे शुद्ध आत्माना ज ध्यान वडे
पूर्ण सुखरूप परमात्मदशा अल्पकाळमां थशे. आ रीते बहिरात्मा, अंतरात्माने
परमात्मनुं स्वरूप ओळखवुं.

त्रिविध आत्मा जाणीने, तज बहिरातमभाव;
थई तुं अंतरआत्मा, ध्या परमात्मस्वभाव.