Atmadharma magazine - Ank 353
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : र४९९ आत्मधर्म : ३९ :
अद्भुत! सुंदर! गंभीर! महान!
चैतन्यतत्त्वनो अद्भुत महिमा बतावतां हमणां गुरुदेव ऊंडाणथी वारंवार कहे
छे के–
अहो! शांत... प्रशांत चैतन्यतत्त्व!
केटलुं सुंदर! केटलुं गंभीर! केटलुं महान!
जेनी नीकटतामां पण शांतिना फूवारा छे–तेनी अंदरनी शांतिनी तो शी वात!
ए शांतिनी परम शीतळतामां संसारनो कोई आताप आवी शकतो नथी... ने
संसारना आतापमां मशगुल जीवो ए शांतिना स्वादने माणी शकता नथी.
अहा! एकवार अंदर जो तो खरो के–शांतिनो स्वाद केटलो सुंदर छे!
ए आत्मस्वाद चाखतां तुं तृप्त–तृप्त थई जईश.
झरीयाथी श्री कांतिभाई कोठारी प्रमोदथी लखे छे के–
“आम तो हुं गमे त्यांथी मेळवीने आत्मधर्म वांची लउं छुं. तेमां तमारो अंक
नं. ३४० मने बहु ज गमी गयो. भगवती–आराधनाना कवचअधिकारनुं वर्णन, तथा
भावअनुगम (षट्खंडागम) मांथी कषाय अने ज्ञाननी भिन्नतानुं वर्णन वांचतां
अमने घणुं जाणवानुं मळ्‌युं. जैनदर्शननी जे वस्तु अलोप (अप्रसिद्ध) हती, अने हजी
पण आवा आगमो उघाडीने भाग्ये ज कोई वांचे छे, त्यारे आवा कलजुगमां तमारा
तरफथी आत्मधर्म–पत्रिका द्वारा ऊंची–ऊंची वानगी पीरसाय छे ते सौ कोईने वांचवानुं
मन थाय तेवी छे अने ते वांचतां महिमा आवे छे के वाह! आपणा जैनधर्ममां केवा–
केवा महान आचार्यो थई गया छे! –आम जैनधर्ममां वधु प्रीति आवे छे. खरेखर,
षट्खंडागम जेवा महान जैनग्रंथो दुनियाने हेरत पमाडे तेवा छे. कषाय अने ज्ञाननी
जे भिन्नता समजावी छे ते अद्भुत छे.
ली. कान्तिलाल कोठारी, झरीया.
प्रश्न :– कीडी वगेरे त्रणईन्द्रिय जीव अंधकारने जाणी शके?
उत्तर :– ना; अंधकार ते आंखनो विषय छे; आंखवाळो जीव ज अंधकारने जाणी शके.
प्रश्न :– आराधना एटले शुं? तेमां जीवे शुं करवानुं होय छे?