: चैत्र : २४९९ आत्मधर्म : १५ :
सम्यग्द्रष्टि कांई सदाय निर्विकल्प अनुभवमां न रही शके; परंतु सर्विकल्प दशा
वखतेय तेनुं सम्यग्दर्शन के भेदज्ञान खसे नहि. शुभ के अशुभ वखतेय ते शुभ
अशुभथी जुदी एवी ज्ञानधारा तेने वर्ते ज छे; शुभाशुभ वखते कांई ज्ञानधारा तूटी
जती नथी, के ज्ञानधारा पोते मेली थई जती नथी. शुभाशुभ वखते ज तेनाथी भिन्न
शुद्धआत्मानुं ज्ञान वर्ते छे, ते कांई अज्ञान थई जतुं नथी.–आवी अविच्छिन्न
ज्ञानधारा तेनुं नाम धर्म छे, ने ते संवर तथा मोक्षमार्ग छे.
भेदज्ञानना महिमापूर्वक आचार्यदेव कहे छे, ते कांई अज्ञान थई जतुं नथी.
आवी अविच्छिन्न ज्ञानधारा तेनुं नाम धर्म छे, ने ते संवर तथा मोक्षमार्ग छे.
भेदज्ञानना महिमापूर्वक आचार्यदेव कहे छे के–अहो! आ भेदविज्ञानने
अच्छिन्नधाराए त्यां सुधी भावो के ज्यां सुधी परथी भिन्न थईने ज्ञान ज्ञानमां ज
स्थिर थई जाय.
* संवरधर्म एटले सुख; सुख एटले स्वानुभव *
संवर एटले शांतिनुं वेदन, सुखनी अनुभूति. ते भेदज्ञान वडे थाय छे.
आत्माना सुखनी अनुभूति जेनुं लक्षण छे एवा भेदज्ञान वडे जीवने संवरधर्म थाय छे.
भेदज्ञानमां परभावोथी भिन्न उपयोगस्वरूप आत्मानो स्वानुभव छे. संवरनो आधार
आत्मा पोते आनंदभूमि छे. आनंदस्वरूप भगवान आत्मा पोते छे, ते स्वरूपमां
आरूढ थतां आनंदपूर्वक भेदज्ञान थाय छे. ते भेदज्ञान थतां आत्मा पोताने सर्वदा
उपयोगमय अनुभवे छे ने रागादि कोई पण अन्य भावोने पोताना उपयोग स्वरूपमां
ते भेळवतो नथी. रागथी जुदो ज पोतानो स्वाद ते ल्ये छे. पोते चैतन्य भावपणे
पोताने राखीने रागने जुदापणे जाणे छे. अज्ञानी रागादिना प्रसंगमां आपघात
(पोतानो घात, आत्माना स्वभावनो घात) करे छे,–रागथी भिन्न पोताना
ज्ञानस्वभावने भूली जाय छे, ने रागरूपे ज पोताने अनुभवे छे ते परमार्थे आत्मघात
छे, धर्मी जीव, गमे तेवी प्रतिकूळताना गंज आवी पडे के जराक आर्तध्यान थई जाय तो
पण, ज्ञानस्वरूपपणे पोताने तन्मयपणे वेदतो थको, अने रागादिमां जराय तन्मयता
नहि अनुभवतो थको, चैतन्य–जीवनपणे पोताने जीवतो राखे छे, आत्मघात करतो
नथी, आत्माना स्वभावने हणतो नथी.–तेने संवर छे, सुख छे, धर्म छे, शुद्धता छे,
मोक्षनो पंथ छे. धर्मीनी आवी निर्विकल्प अंर्त दशानुं माप कोई बहारना चिह्मथी–
रागथी के संयोगथी थई शके नहि; विकल्प वडे तेनी ओळखाण थाय नहीं; विकल्पथी
भिन्न पडेला भेदज्ञानथी ज तेनी साची ओळखाण थाय छे, ने एने ज स्वानुभवना
सुखनो स्वाद आवे छे.