
अहाहा! हजी ज्यां झळहळता सूर्यनो प्रकाश थयो नथी पण परोढनो पो’
भेदीने सूर्यनो प्रकाश दशे दिशाने झळहळती करशे,–ते दशानी शी वात! सम्यग्दर्शन
वस्तु ज एटली अलौकिक अने गूढार्थभाववाळी छे के एनुं वर्णन शुं करवुं अने शुं
न करवुं! ! तेना गंभीर भाव घूंटाया करे छे. जेने सम्यग्दर्शनरूपी सूर्य हजी ऊग्यो
नथी पण तेनी सन्मुख थयो छे ते जीवनी रहेणीकरणी अन्य मिथ्यात्वी करतां घणी
अलौकिक होय छे; ते जीवने आत्माना प्रेम साथे सरळता, कषायनी मंदता, मोक्षनी
अभिलाषा, साचा देव–गुरु–शास्त्र प्रत्ये अनन्य भाव, वगेरे भावो बीजा करतां
जुदी जातना होय छे–
भवे खेद, अंतर दया, त्यां आत्मार्थ–निवास.
ऊतरतो जाय छे, कषायनुं उग्रपणुं तेने आवी जतुं नथी. एकदम शांति अने धीरजपणे
ते मूळमार्ग उपर डग मांडी रह्यो छे, तेथी परिणाममां चंचळता बहु ओछी थाय छे;–
क्यारेक थई जाय छे तोपण भावनी विशुद्धता वडे तरत पाछो वळी जाय छे. ते हजी
वेपार वगेरे संसार–संबंधी कार्योमां जोडातो होवा छतां तेना भावो बीजा जीवो करतां
जुदा होय छे. कोई पण बहारना विषयमां केत कुतूहलमां तेनी वृत्तिओ ऊछाळा मारती
नथी; कारणके बहारना विषयो उपरनी जे लोलुपता के तीव्रता हती ते हवे चैतन्यप्रेम
वडे अंदरना मार्गे चडतां घणी घटी गई छे. संसारनी के संसारना संयोगोनी
अभिलाषा छूटीने महा आनंदरूरूप मोक्षनी अभि