Atmadharma magazine - Ank 354
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म : चैत्र : २४९९
भिन्नताने बराबर जाणे छे, अने पोताना मूळ तत्त्वने ज्ञानमां तारवी ल्ये छे. हुं पोते
शुद्ध जीवतत्त्व उपयोगरूप केवो छुं? केवडो महान छुं? केवुं मारुं कार्य छे?–एम पोताना
आत्मासंबंधी अनेक प्रकारना विचारमां ज्ञानने लंबावे छे. जेम जेम विचारधारा
लंबावतो जाय छे तेम तेम ज्ञाननी द्रढता वधती जाय छे ने विकल्प तरफनुं जो तूटतुं
जाय छे तथा निर्णयमां अस्तिरूप ज्ञानस्वभाव तरफनुं जोर वधतुं जाय छे; अने वधु ने
वधु स्पष्ट भावभासन थतुं जाय छे के–अहा! आवुं चैतन्य तत्त्व हुं ज छुं; अनंत
गुणोना पिंडरूप एकस्वरूप चेतनामय ज हुं छु; हुं फक्त चेतना–चेतनामय ज छुं. मारी
चेतनामां आनंद वगेरे अनंत स्वभावो समाय छे, पण रागादि कोई परभावो तेमा
समाता नथी, ते तो चेतनाथी जुदा ज स्वरूपवाळा छे, एक स्वरूप नथी. आवा
विचारवडे भेदज्ञाननी द्रढता थती जाय छे. पहेलांं तो विचारमां गुण–पर्यायना विचार
आवता हता, तथा ‘हुं आवो नथी एटके के राग वाळो, शरीरवाळो, कर्मवाळो के
भेदवाळो हुं नथी’ एम नास्तिना विचार आवता हता, पण हवे तो ते विचारो गौण
थईने अस्तिस्वभावना विचारनी ज मुख्यता वर्ते छे–एटले ‘आवो स्वभाव छुं’ एम
गंभीरमहिमापूर्वक सन्मुख थतो जाय छे; ने ते स्वभावनुं साक्षात् वेदन करवा माटे ते
जीव एवो ओतप्रोत बनी जाय छे के तेने क््यांय चेन पडतुं नथी, बीजेक््यांय बहारमां
लक्ष थंभतुं नथी, सूक्ष्म विकल्पोय छूटता जाय छे ने ज्ञान वधु ने वधु गंभीर थतुं जाय
छे. आत्माना चिंतननी धूनमां उपयोग एवो सूक्ष्म थतो जाय छे के बहारमां तो क््यांय
गमतुं नथी पण अंदर सूक्ष्म विकल्पो रहे तेमां पण चेन पडतुं नथी; तेनाथी छूटी
अंदरना स्वभावमां एकमेक थवा माटे उपयोग फरीफरीने अंदर ऊतरवा मथे छे.
अहाहा! आवा ज्ञानानंदस्वभावनो अपार महिमा लावीने तेना चिंतननी धूनमां ते
जीवने अंतरमां शांति अने अनाकुळता वधती जाय छे. जेम सुवर्णनी शुद्धता करवा
माटे तेने अग्निमां तपाववामां आवे छे, अने ते सोनुं जेम जेम तपतुं जाय छे तेमतेम
तेनी शुद्धता अने पीळाश वगेरे वधता जाय छे; तेम आ जिज्ञासु जीव पण ज्ञान अने
रागनी भिन्नताना विचाररूपी तापमां तपतां–तपतां शुद्धता तरफ आगळ वधतो जाय
छे; हवे श्रद्धानी शुद्धता थवाने वार नथी. अहाहा, आवा विचारनी अने निर्णयनी
अपूर्व भूमिकामां आवतां ते मुमुक्षुने बाह्यचेष्टाओ पण शांत–गंभीर अने स्थिर थती
जाय छे. सम्यग्दर्शनरूपी सूर्य ऊगता पहेलांं स्व सन्मुख विचारधारा आववी ते पण
बलिहारी छे; अने आवी विचारधाराना अंते परिणाम अंतरमां एकाग्र थतां आनंदना
वेदनसहित सम्यग्दर्शननो प्रकाश थाय छे