Atmadharma magazine - Ank 354
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २४९९ आत्मधर्म : २१ :
– धन्य ते दशा! ........ धन्य ते वेदन!
अहा, आवुं! अपूर्व सम्यग्दर्शन थया पछीनी रहेणी–करणी ने विचारधारानुं शुं
कहेवुं? ज्यां सम्यग्दर्शनरूपी सूर्य अनंत चैतन्यकिरणो सहित प्रकाशी रह्यो छे ते अपूर्व
दशानी अपूर्वतानुं वर्णन वाणी तो केटलुंक करी शके? श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे के ‘देह
छतां जेनी दशा वर्ते देहातीत.’– सम्यग्दर्शन पण देहातीत दशा छे, तेमां देहभाव छूटीने
अपूर्व आत्मभाव जाग्यो छे. अहो, आवी दशा जेने प्रगट थई तेनी बाह्य रहेणी करणी
पण उत्तम अने ज्ञान–वैराग्य संपन्न होय छे. ते ज्ञानी जीवने ज्यां आत्माना दर्शन
थया, अने हुं चैतन्यमय आत्मा ज छुं, अन्य कांई पण हुं नथी–एम निर्विकल्प
भेदज्ञानवडे नककी कर्युं, त्यां तेने सर्वजीव प्रत्ये समभावरूप एवी द्रष्टि थई गई छे के,
मारी जेम जगतना सर्वे जीवो पण ज्ञानस्वरूपी भगवान छे.–आम सर्वे जीवोमां
आत्मवत् बुद्धिने लीधे तेने कोई प्रत्ये राग–द्वेषनो अभिप्राय रह्यो नथी, एटले राग–
द्वेष घणा ज मंद पडी गया छे; अने जगतप्रत्ये सहज उदासीनभाव आवी गयो छे.
बाह्यसंयोगनी अपेक्षाए कदाच एने घणी निर्धनता होय, रोगादि होय, बहारमां
अपमान थतुंहोय, छतां पण अंतरमां चैतन्यना अनंत–अनंत वैभवथी भरेला
पोताना आत्मानी महत्ता पोते साक्षात् जाणतो होवाथी तेने दीनता नथी; बाह्य
वस्तुनी आकांक्षानी मुख्यता क््यारेय थती नथी. मनमां एवो विकल्प पण आवतो नथी
के मने परवस्तु मळे तो हुं सुखी थाउं. समयेसमये भेदज्ञानधारा चालु ज होवाथी
आत्मस्वभावना परम गंभीर महिमा पासे तेने बहारनी कोई वस्तु महिमावंत
लागती नथी. चैतन्यनी अकषाय शांतिना वेदनपूर्वक अनंताबंधी कषायभावनो
अभाव थई गयो छे, तेथी कोई प्रसंगे कषायभावनी तीव्रता थती नथी; आत्मशांतिनी
कोई अपूर्व मस्ती वर्ते छे. तेनी साथे जगतप्रत्ये निस्पृहता–सरळता–भद्रिकता–
देवगुरुशास्त्र प्रत्ये बहुमान–भक्ति प्रभावना अने साधर्मीजनो प्रत्ये परम वत्सलता
ईत्यादि भावो पण होय छे. आ रीते तेने अनेकगुणो बाह्य अने अंतरंगपणे खीली
नीकळ्‌या छे. पोतानी आत्मदशामां ते परम निःशंक छे. पोताने अपूर्व शांतिना वेदननी
जे दशा प्रगट थई छे ते दशाने अन्य जीवो स्वीकारे के न स्वीकारे, तेनी अपेक्षा नथी;
पोताने तो पोतानी वेदनपूर्वक आराधना चाली ज रही छे, तेमां ते निःशंक छे. ‘आ
साचुं हशे के नहीं?’ एवी शंकारूपी विकल्प तेने उत्पन्न थतो नथी. बाह्य अनेक
कार्योमां जोडातो देखाय छतां ते तो तेनाथी अलिप्त ज छे. अज्ञानी जीवोने एम थाय छे
के आ धर्मी जीव सांसारिक कार्यमां जोडाय छे ने क्रोधादिक करे छे; परंतु खरेखर