: २२ : आत्मधर्म : चैत्र : २४९९
अंतरमां रागथी भिन्न पडेली तेनी चेतना बाह्य एक पण कार्यमां जोडाती नथी. तेमज
क्रोधादिकथी पण ते जुदी ज रहे छे. स्वभावसन्मुख तल्लीन थयेली श्रद्धा ज्ञानादिनी
वीतरागी परिणति बहारना कोई पण विकल्पने के कामने पोताना कार्य तरीके
स्वीकारती नथी; एटले धर्मी तेनो अकर्ता ज छे. एकवार निर्विकल्प शुद्धोपयोगी थईने
महा आनंदनो जे अनुभव कर्यो पछी विकल्पमां आववा छतां पण ते विकल्पथी
भिन्न–ज्ञान–आनंदनी परिणतिमां ते जीव रमी रह्यो छे. अहाहा! आवो आनंदमय
अखंड आत्मा हुं छुं,–एक क्षण पण एनुं विस्मरण थतुं नथी. भेदज्ञाननी अपूर्वकळा
खीली गई छे. भले ज्ञान उपयोग बहारमां होय, ने शुभ–अशुभ परिणाम वर्तता
एकत्वबुद्धिरूप निर्विकल्प श्रद्धा पण वर्ते ज छे, अने चैतन्यना वेदननुं परमसुख पण
आत्मानी अखंड आराधनामां अभेदपणे वर्ती ज रह्युं छे;–ज्ञानीने आवी
अद्भुतदशासहितनी ज बधी रहेणी–करणी होय छे. तेनी सर्वे रहेणी–करणीमां ‘जगत
ईष्ट नहि आत्मथी’ एवो भाव वर्ते छे; केमके ज्यां आत्मामांथी अतीन्द्रिय
आनंदरसना घूंटडा पीधा होय त्यां जगतमां बीजुं कांई ईष्ट क्यांथी लागे? बस,
आत्मनी धून एवी लागी छे के क्यारे तेमां विशेषपणे लीन थाउं! एवी ज भावना
घूंटाया करे छे. शुभ–अशुभ परिणाममां उपयोग जतो होवा छतां तेनाथी पार
ज्ञानदशा जेने निरंतर वर्त्या करे छे–‘ते ज्ञानीना चरणमां वंदना हो अगिणत.’
(ले. ब्र. जयश्रीबेन दोशी, राजकोट)
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* अहा, जैनशासने बतावेलुं चैतन्यतत्त्व!–जेनी वात
सांभळतां धर्मनो उत्साह वधी जाय, ने जेनुं ज्ञान करतां महा
आनंद थाय. आवा तमारा चैतन्यतत्त्वने हे जीवो! तमे लक्षमां
ल्यो.
* अरे जीव! जैनमार्गथी विपरीत एवा कुगुरुओने
मानवाथी तो तारा पुण्यनो रस घटीने पापनो रस वधी जशे,
अने वळी मिथ्यात्वनी पुष्टिथी भयंकर भवभ्रमण वधी जशे.
कदाच चमत्कार वगेरे देखाय तोपण एवा कुगुरुप्रत्ये जराय
ललचाईश मा....आत्मानुं अहित करीश मा. एक ज ध्येयथी
जैनमार्गमां ज चाल्या करजे.... ते मार्गे जरूर तारुं हित थशे.