Atmadharma magazine - Ank 354
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २४९९ आत्मधर्म : २७ :
अज्ञानथी ते मिथ्यात्वने सेवे छे, अने माने छे एम के हुं तो सम्यग्द्रष्टि छुं, – एने
तो सम्यक्त्व शुं छे तेनी खबर पण नथी. अहो, रागथी पार अंतरनो जैनमार्ग!
एनी एने खबर नथी.
अहो, जैनमार्ग! चैतन्यनी अनंत गंभीरता एमां भरी छे
अरे, जैनमार्ग तो शुं चीज छे! जगतथी नीराळो ने रागथीये नीराळो;
चैतन्यनी अपूर्व शांति जेमां भरी छे – आवो जैनमार्ग एक क्षण पण सेवे तो
भवना अभावना भणकार आत्मामां आवी जाय. रागनो कोई अंश जेमां भळे
नहि एवो चैतन्यस्वभाव, तेनी सन्मुख थयेला श्रद्धा–ज्ञान पण राग वगरना छे;
आवा श्रद्धा–ज्ञान वडे जैनमार्ग एटले मोक्षमार्ग शरू थाय छे. आवा आत्माना
श्रद्धा–ज्ञान वगर गमे तेवा शुभराग करे तोपण जैनमार्ग शरू थतो नथी, एटले के
धर्म थतो नथी.
शुभ–अशुभ राग थाय त्यां धर्मी पोताना चैतन्यतत्त्वने ते रागथी भिन्न
अनुभवे छे, रागमां तन्मय थईने वर्ततो नथी. ज्ञानस्वरूप–आनंदस्वरूप मारुं
स्वतत्त्व, तेमां रागना अंशनो पण प्रवेश नथी, मारी चैतन्यसत्ताथी राग बहार
छे–एम धर्मी बधाय रागथी पोताने जुदो जाणे छे. अज्ञानी अशुभ रागने दुःख कहे
छे ने शुभ रागमां तेने सुख लागे छे, तेथी शुभ रागथी जुदा ज्ञानना स्वादनो
तेने अनुभव नथी. आत्मभाव अने अनात्मभावनी भिन्नतानुं तेने भान नथी,
तेथी शुभरागरूप व्रतादि करवा छतां ते अज्ञानी–मिथ्याद्रष्टि ज छे.
धर्मात्मानी ज्ञानपरिणतिमां वैराग्यनुं अद्भुत बळ होय छे.
परमभावमां स्थिर थईने आत्माना आनंदनो स्वाद जेणे चाख्यो छे,
पोताना सुखसागरनी थोडीक लहेजत जेणे चाखी छे, ते धर्मात्मानी परिणति
परविषयो अने परभावो तरफथी छूटी–विरक्त होय छे, एनुं नाम वैराग्य छे.
अज्ञानीने ‘सर्व आगमधर’ एटले के श्रुतकेवळी जेवो कह्यो, पण खरेखर
आगमनो एककेयभाव ते साचो समज्यो नथी केमके अंदरमां बुद्धि रागना
अनुभवमां ज रोकायेली छे, रागथी जुदा ज्ञाननो अनुभव तेने नथी; ते तो
रागादि अनात्मभावने ज आत्मा मानीने अनुभवे छे, तेथी ते गमे तेटला
आगम भणेलो