: ३० : आत्मधर्म : चैत्र : २४९९
रागना कोई अंशने भेळवता नथी, तेमनी चेतना रागथी सर्वथा जुदी ने जुदी ज रहे
छे. ज्ञानीनी आवी चेतना ते परम आनंदसहित छे, ने ते संवर–निर्जरा – मोक्षरूप छे.
• परमात्मा तेडावे छे...... ने संतो आनंदित थाय छे •
अहा! जाणे परमात्माए बोलाव्या होय ने तेमने मळवा
माटे जता होय, तेमां केटलो आह्लाद होय! ! तेम स्वभावनी
भावनामां साधकने परम आह्लाद छे. एक साधारण राजा
मळवा माटे तेडावे तोय लोको केवा खुशी थाय छे? त्यारे अहीं तो
अंदरमां भगवान भेटवा बोलावे छे के: आवो.....आवो! आ
आनंदमय चैतन्यधाममां आवो! आवा चैतन्यना अनुभवमां
एकलो आनंदनो आह्लाद ज भर्यो छे! वाह! भगवानना
तेडानी आ वात सांभळतां पण श्रोताओ कोई अनेरो उल्लास
अनुभवे छे.
शुद्ध आनंदस्वभावनो जे खरेखरो उल्लास ने उमंग
आववो जोईए, ते उल्लास अज्ञानीने नथी आवतो तेथी ते बीजे
अटकी जाय छे; जो खरो उल्लास अने उमंग आवे तो अनुभव
थया विना रहे नहि. चैतन्यभगवान आनंदामृतनो वेलो छे.
आवी पोतानी स्व–वस्तु प्रत्ये असंख्य प्रदेशे उल्लास उल्लसे त्यां
परिणति विभावथी पाछी फरी जाय छे, स्वानुभव थाय छे; ते
स्वानुभवमां तेने परमात्मानी प्राप्ति छे.–आवा स्वानुभवनुं नाम
परमात्मानी स्तुति छे. चैतन्यना अनुभवना महा सामर्थ्य वडे
मोहनो क्षय करी नांखे छे, उत्कृष्ट स्तुति छे; अल्पकाळमां ते स्वयं
परमात्मा थाय छे. तेसाधकने परमात्माना तेडा आवी गया छे.
निर्विकल्पध्यान वडे साक्षात् परमात्मा साथे तेनुं मिलन थयुं छे.
अहा, भगवानना मिलनना आनंदनी शी वात!
(गुरुदेवना प्रवचनमांथी)