: चैत्र : २४९९ आत्मधर्म : ३१ :
स्व – परनुं भेदज्ञान आत्मानी सम्पूर्णता देखाडे छे
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वारंवार परथी भिन्नता ने परनुं अकर्तृत्व समजावीने आचार्यदेव जीवने परथी
पाछो वाळीने पोताथी पूर्ण एवा स्वद्रव्य तरफ वाळवा मागे छे; ने नित्य सम्पूर्ण एवी
स्वशक्तिथी भरेलो आत्मस्वभाव देखाडवा मांगे छे. वस्तुस्थितिथी स्व ने पर बंने
तद्न जुदा छे, परनी पूर्णता परमां ने स्वनी पूर्णता स्वमां; स्वनो अंश परमां नहि, ने
परनो अंश स्वमां नहि.
जो आवी वस्तुस्थितिने समजे तो जडने विषेथी स्वस्वरूपनुं अभिमान मटे, ने
स्वस्वरूप प्रगटे. माटे आवी यर्थाथ वस्तुस्थिति विचार करीने नक्क्ी करो.
भाई, परद्रव्य तारुं नथी, तेनुं कोई कार्य तारुं नथी, ने ते तने जराय सुखरूप
नथी; एवुंजे भिन्न परद्रव्य तेने भ्रान्तिथी तें तारुं मान्युं छे ने स्वमां एकत्वपरिणति
छोडीने तें परमां एकत्व मान्युं छे, ते दुःखदायी छे. माटे वस्तु स्वरूपने समज तो तारी
परमांथी एकत्वुद्धि परम सुख प्रगटे.–भेदज्ञान विना सिद्ध थाय नहि.
ज्यांसुधी परद्रव्यना कर्तृत्वना वेगथी जीव पाछो न वळे त्यांसुधी स्वद्रव्यनी
सम्पूर्णता तरफ तेनुं वलण न वळे, ने स्वगुणनी शांति तेने मळे नहि.
परनुं कर्तृत्व माननारना हाल केवा छे ते नीचेना पदमां बताव्युं छे:
ससा–शींगनुं वहाण ज कर्युं,
मृगतृष्णामां जईने तर्युं;
वंध्या–सूत बे वहाणे चड्या,
ने ख–पुष्पना वसाणां भर्या.
* जेम ससलानां शींगडानुं वहाण बने ज नहि, केमके ससलाने शींगडुं होतुं ज
नथी;
* मृगजळमां वहाण तरे नहि केमके त्यां पाणी ज नथी;
* वंध्यासूत वहाणमां चडे नहि केमके वंध्याने सूत होय ज नहि.
* ने आकाशनां पुष्य कोई भरे नहि केम के ते होतां ज नथी.