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आनाथी बन तुं तृप्त, तुजने सुख अहो! उत्तम थशे.
नथी. आम ज्ञान स्वरूप नक्क्ी करीने तेमां ज तुं रति कर. मारुं वहालामां वहालुं
आ ज्ञानपद छे, बीजा कोई रागादि भावो ते मारुं साचुं स्वरूप नथी, ते मारा
स्वरूपथी बहार छे;–आम अंतर्मुख थईने पोताना ज्ञानस्वरूपना वेदनमां तने
शांति थशे, तने आनंद थशे; तारुं ज्ञानस्वरूप ज शांति अने आनंदस्वरूप छे एम
तने अनुभवाशे.
संतुष्ट था. अहा, परभावोथी भिन्न ज्ञाननो स्वाद लेतां तने कोई एवो अपूर्व
संतोष थशे.... के वाह! मारुं स्वरूप स्वयमेय कल्याणरूप छे, ते मारामां ज मने
अनुभवाय छे. जगतना बाह्य ईंद्रियविषयो के हर्ष–शोकना भावोनुं वेदन जीवने
कदी संतोष आपी शके नहीं. पोतानुं शांत–अनाकुळ चैतन्यस्वरूप पोते कल्याण छे,
ने तेना वेदनथी अपूर्व कल्याणनी प्राप्तिथी जीवने परम संतोष थाय छे माटे
ज्ञानना वेदनथी ज तुं सदा संतोष पाम. ज्ञानमां कोई अकल्याण नथी, उपद्रव
नथी, दुःख नथी, अतृप्ति नथी, ज्ञान तो स्वयमेव अपर्व शांतिना वेदन सहित छे,
ते पोते कल्याण छे, ते पोते सुख छे, ते पोते पोताथी तृप्त छे. आवा अनंत
निजभावोथी भरेलुं गंभीर ज्ञान छे ते ज आत्मानुं निजपद छे. अरे जीव! आ
भवदुःखथी छूटवा ने परम आनंद पामवा माटे तुं अंतरमां तारा परमतत्त्वनो
अभ्यास कर, तेमां ऊंडो ऊतरीने तेनो अनुभव कर.