आत्मध्यान सहित वनजंगलमां विचरवा लाग्या. बार वर्ष सुधी मुनिअवस्थामां
मौनपणे ज्ञान–ध्यान सहित विचर्या; ने वैशाख सुद दशमना रोज सम्मेदशिखरनी
नजीक ऋजुवालिका नदीना तीरे क्षपकश्रेणी मांडीने लोकालोकप्रकाशक केवळज्ञान प्रगट
करीने अरिहंत परमात्मा थया. अने पछी राजगृहीमां विपुलाचल पर अषाड वद
एकमथी दिव्यध्वनि वडे जगतने मोक्षमार्गनो उपदेश आप्यो. ते उपदेश झीलीने
गणधरोए शास्त्रोनी रचना करी; वीतरागमार्गी संतोनी परंपराथी ते उपदेश आजे
चाल्यो आवे छे. तेमां कहे छे के–
भूलीने मोह कर्यो ने दुःखी थयो; हवे ते मोहने छोडवा माटे आ उपदेश छे.
जेम काले आत्मा क््यां हतो तेनुं ज्ञान थाय छे तेम आ भव पहेलांं पूर्वना भवोमां
आत्मा क््यां हतो तेनुं पण ज्ञान थई शके छे. आत्माना ज्ञाननी अचिंत्य ताकात छे.
पूर्वभवना ज्ञान करतांय आत्मानुं अनुभवज्ञान कोई अपूर्व छे, ते मोक्षनुं साधक छे.
आनंदस्वभाव छे तेनो का
जीव! तुं आजे ज कर.–आवो अनुभव ते ज वीरनो मार्ग छे.
ज्ञान ज आत्मानो सम्यक्स्वभाव छे; राग कांई आत्मानो स्वभाव नथी; ते तो
परभाव छे, ने देह तो जड छे. बापु! हवे ते परभावोना वेदनने रहेवा दे, ने तारा