Atmadharma magazine - Ank 356
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म जेठ: २४९९ :
स्वरूप आत्मा छुं, परमां मारूुं सुख नथी, शुभाशुभ ईच्छाओ मारुं स्वरूप नथी. एवी
ओळखाण वगर ईच्छाओ कदी रोकाय नहि ने आनंद कदी प्रगटे नहि. ईच्छा वगरनो
आत्मानो सुखस्वभाव तेना अनुभवथी ज संवर–निर्जरा–मोक्ष थाय छे. अज्ञानी
शुभरागवडे के देहनी क्रियावडे संवर–निर्जरा–मोक्ष थवानुं माने छे, ते भूल छे.
मोक्षना कारणरूप निर्जरा सम्यग्द्रष्टिने ज थाय छे; बाकी अकाम–निर्जरा तो
अज्ञानीनेय थाय छे, तेनी आ वात नथी. ज्ञान अने ईच्छा भिन्न छे, ईच्छा ते
आत्मशांतिथी विरुद्ध छे, तेमां आकुळता छे. जेणे शुभरागने मोक्षनुं साधन मान्युं
तेणे आकुळताथी मोक्ष मान्यो, निराकुळतारूप मोक्षनी तेने खबर नथी. मोक्ष तो
संपूर्ण निराकुळ छे; निराकुळतानुं कारण पण निराकुळभाव ज होय; कांई आकुळता ते
निराकुळतानुं कारण न होय. शुभईच्छा ते पण आकुळता छे. तेने मोक्षनुं कारण
मानतां कारण–कार्यमां विपरीतता थाय छे. आवी विपरीतश्रद्धा ने विपरीतज्ञान
जीवने दुःखनां कारण थाय छे; माटे ते छोडवा जोईए.
जीव ईच्छा करे अने पाछो तेमां सुख माने, तो ते ईच्छाने छोडीने
शांतस्वभावने क्यारे अनुभवे? ईच्छा तो दुःख छे–‘क्या ईच्छत? खोवत सबै, है
ईच्छा दुःखमूल.’ अरे जीव! तुं तारा चैतन्यवैभवने भूल्यो त्यारे तने परमांथी सुख
लेवानी ईच्छा थई. पण भाई, परमांथी सुखनी ईच्छा करतां तारा सुखनो आखो
भंडार खोवाई जाय छे, भूलाई जाय छे, ने आत्मा दुःखी थाय छे. परमां सुख ज
नथी, चैतन्यमां ज सुख छे–आम समजीने निजस्वरूपमां ठरवुं ने परनी ईच्छा रोकवी
ते ज शांति छे, ते ज निर्जरा अने मोक्षमार्ग छे.
जीव–अजीव वगेरे तत्त्वने अज्ञानी ओळखतो नथी, जाणे रूपिया वगर हुं
मरी जईश, शरीर वगर हुं मरी जईश–एम ते माने छे. अरे, पण तुं तो चैतन्यथी
जीवनार छोने! संयोगथी ने शरीरथी तो तुं जुदो छो, ने ते तरफनी ईच्छा वगर पण
तुं जीवनार छो. पर वगर हुं जीवी नहीं शकुं–एवी मिथ्याबुद्धिथी तुं भावमरणनां दुःख
भोगवी रह्यो छे. आवी भूल जीव अनादिथी करी रह्यो छे ने तेना फळनुं दुःख पण
अनादिथी ते भोगवी रह्यो छे. भूल टाळीने सुखी थवा माटेनो आ उपदेश छे.
पोताना स्वरूपनी सम्यक् श्रद्धा अने सम्यग्ज्ञान वगर, शुभरागरूप
व्यवहारक्रियाओ अने व्यवहारनां जाणपणां जीवे अनंतवार कर्या पण ते बधा
मिथ्या छे;