Atmadharma magazine - Ank 356
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: २४९९: जेठ आत्मधर्म : ९ :
मिथ्यात्वपूर्वक जीव जे कांई भाव करे ते दुःखदायक ज छे. श्री बुद्धजनपंडित पण कहे
छे के–
सम्यक् सहज स्वभाव आपका अनुभव करना,
या विन जप–तप व्यर्थ कष्ट के मांही पडना;
कोटि बातकी बात अरे!
बुधजन उर धरना,
मनवचतन शुचि होय ग्रहो जिनवृषका शरना.
करोडो वातोनो सार ए छे के आत्माना सहजस्वभावनो अनुभव करवो;
एना वगरनुं बधुं व्यर्थ छे.
जुओ, समयसार वगेरे महान शास्त्रोमां तो आ वात छे ज; पण अगाउना
पंडितोए पण ए ज वात करी छे. ते पंडितोनुं कथन पण आचार्यो–अनुसार ज छे,
तेमां वीतरागविज्ञाननुं ज पोषण छे. चैतन्यनुं वीतराग–विज्ञान ते सुखरूप छे; ने
एवा वीतरागविज्ञानरूप धर्मने साधीसाधीने अनादिकाळथी जीवो मुक्त थता आवे छे.
वीतरागविज्ञानवंत जीवो जगतमां सदाकाळ होय ज छे.
आत्माने आनंद जोईए छे ने?–हा! तो ते आनंद क्यांय बहारमां नथी,
आत्मामां ज आनंद छे. माटे ज्ञानी कहे छे के ‘हे जीव! तुं आत्मामां
गमाड....आत्मामां सदा प्रीतिवंत था.’ आत्माना ज्ञान वगरनुं बधुं दुःखदायक ज छे.
सात तत्त्वोनी बराबर ओळखाण करतां तेमां आत्मानी ओळखाण आवी जाय छे.
(१) जीव सदा उपयोग लक्षणरूप छे– ‘ जीवो उवओगलक्खणो णिच्चं’ ते
शरीरादि अजीवथी जुदुं तत्त्व छे.
(२) पुद्गल वगेरे अजीवतत्त्वो छे, तेमनामां ज्ञान नथी. आ जीव अने
अजीव बंनेनां काम जुदां, पोतपोतामां छे.
(३) मिथ्यात्वादि भावो छे ते आस्त्रव छे; पुण्य–पाप बंने पण आस्रवमां
समाय छे. ते आस्त्रवभावो जीवने दुःखदायक छे.
(४) सम्यग्दर्शनादि वीतरागभाववडे कर्मनो संवर थाय छे. ते सम्यग्दर्शनादि
भावो जीवने सुखरूप छे, मोक्षनां कारण छे.
(५) मिथ्यात्वादि भावो ते बंधना कारण छे; शुभराग ते पण बंधनुं कारण
छे, ते मोक्षनुं कारण नथी.