Atmadharma magazine - Ank 356
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: २४९९ : जेठ आत्मधर्म : १९ :
द्रव्यलिंग धारीने पण एकलुं दुःख ज पाम्यो. अंतरमां सर्वे विभावथी पार जे
आनंदझरतुं चैतन्यतत्त्व बिराजी रह्युं छे तेना अनुभव वगर मोक्षनो मार्ग ऊघडे
नहि, ने रागना फळनी वांछा मटे नहि. अरे, एकवार तो रागथी पार तारा
चैतन्यसुखने लक्षमां ले; एनो स्वाद आवतां ज आखी दुनिया अने बधा
रागादिभावो तने अत्यंत नीरस लागशे; ने चैतन्यनो कोई अपार–अद्भुत महिमा
तने पोतामां अनुभवाशे,–संतोए परमागममां जेनो अपार महिमा गायो ते परम
तत्त्व तुं पोते ज छो.–एने लक्षमां लेवुं ते ज परमागमनो सार छे.
राग भाव तो अनादिथी जीव करे ज छे; तेनुं फळ संसार छे. राग करवो तेमां
कांई शूरवीरता नथी; शूरवीरता तो रागथी भिन्न एवा वीतरागी चैतन्यभावमां छे;
भेदज्ञानवडे आनंदमय चैतन्यपरिणति थवी ते ज साचो पुरुषार्थ छे, ते ज मोक्ष
माटेनुं साचुं पराक्रम छे. समकिती धर्मात्मा शूरवीरपणे वीतरागमार्गने साधे छे. एनी
ज्ञानचेतना रागथी कोई जुदुं ज काम करे छे. ए बहारथी न देखाय. पण बीजा एने
देखे के न देखे एनी अपेक्षा ज्ञानीने क्यां छे? ए तो जगतनी अपेक्षा छोडीने पोते
पोतामां एकलो–एकलो ज्ञानचेतनाना आनंदने वेदे छे...आनंदनो स्वाद लेतो लेतो
भगवानना मार्गे चाल्यो जाय छे.
धर्मी पोताना अकंप परम ज्ञानस्वभावमां ज स्थिर छे, राग वखते कांई तेनुं
ज्ञान पोताना स्वभावथी डगी जतुं नथी. खातां–पीतां–बोलतां तेनुं ज्ञान तो
ज्ञानभावमां ज रह्युं छे, ज्ञान रागमां गयुं नथी. ज्ञानपर्याय प्रगटी छे ते रागमां
तन्मय थती ज नथी. चैतन्यस्वभावनी अपूर्व शांतिना वेदनमां रागनुं वेदन केम होय?
शांतिना बरफमां कषायनो अग्नि केम होय? जेम लोको रोगनी वेदनाने सारी मानता
नथी तेम राग तो चैतन्यमां रोग जेवो छे, तेना वेदनने धर्मी सारुं मानता नथी.
शुभाशुभ राग के हर्ष–शोक आवी पडे तेनाथी धर्मात्मानी ज्ञानचेतनानुं वेदन जुदुं ने
जुदुं छे, ते ज्ञानचेतना रागादिने करती ज नथी. धर्मीना अनंतगुणमां प्रगटेला
सम्यग्दर्शनादि निर्मळभावो रागथी छूटा मुक्त ज छे, मोक्षसुखनो नमूनो तेना
वेदनमां वर्ते छे. अहो, धर्मात्माना आवा कार्यने अज्ञानीओ क्यांथी ओळखी शके?
ज्ञानी तो पोते पोतानुं काम अंदर कर्ये जाय छे, तेने बीजा लोको जाणे के न जाणे–एनुं
शुं काम छे? (–ए वात श्रीमद् राजचंद्रजीए एक पत्रमां लखी छे.)