Atmadharma magazine - Ank 356
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: २४९९ : जेठ आत्मधर्म : २१ :
हे भव्य! तुं चेतनस्वरूप आत्माने जाण
सम्यक्त्वादि भावशुद्धि ते ज शास्त्रना श्रवण–पठननुं साचुं फळ .
अहो, अतीन्द्रिय आत्माना स्वसंवेदनपूर्वक
नीकळती वीतरागी संतोनी वाणी!–जाणे चैतन्यनी
कोई ऊंडी–ऊंडी गूफामांथी आत्मअनुभवना वायरा
वा’ता होय! एम गंभीरपणे आत्मानुं स्वरूप
देखाडे छे. वाणीमां पण चैतन्यना रणकारनी
आवी मीठाश...अहो! ते चैतन्यनी अनुभूतिनी
मीठाशनी शी वात! संतो कहे छे के आवा आत्माने
स्वसंवेदनथी तमे अनुभवो.
(भावपाहुड गा. ६४–६५)
हे भव्य! तुं जीवनुं स्वरूप चेतनमय जाण. शब्द–रस–रूप–गंध–वर्ण वगेरे
जडना स्वभावो छे, ते आत्मानो स्वभाव नथी. खाटो–मीठो वगेरे पांच प्रकारनो जे
रस छे ते पुद्गलनो स्वभाव छे, ते आत्मानो रस नथी. आत्मानो स्वभाव तेने
जाणनार छे, पण आत्मा ते रसरूपे थतो नथी. आत्मा परिणमे तो ते रसरूपे
परिणमतो नथी पण ज्ञायकभावरूपे परिणमवानो आत्मानो स्वभाव छे.–आवा
अरसस्वभावने, एटले के रसथी भिन्न अतीन्द्रिय चेतनागुणने तुं तारा स्वसंवेदन
वडे जाण.
आत्मानो स्वभाव ज्ञायक छे, ते जाणनार छे. रसने जाणवानो तेनो स्वभाव
छे, पण ते रसरूपे थई जतो नथी. जो रसरूपे आत्मा थाय, तो ते रस साथे तन्मय
थई जाय एटले आत्मा जड थई जाय. पण एम कदी थतुं नथी. दरेक द्रव्य स्वतंत्र छे.
कोईना द्रव्य–गुण–पर्याय बीजारूपे थता नथी.
आत्मानो स्वभाव तो जेवा सिद्धभगवान छे एवो ज छे. जेम
सिद्धभगवानमां रूप–रस–गंध कांई नथी तेम आ आत्मामां पण नथी.
सिद्धभगवाननी जेम आ