Atmadharma magazine - Ank 356
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: २२ : आत्मधर्म जेठ : २४९९ :
आत्मा अतीन्द्रिय चैतन्यरूप छे. जड ते कोई रीते चेतनरूप थाय नहि, ने चेतन ते
कोई रीते जडरूप थाय नहीं पुद्गलना रस परिणामने आत्मा उपजावी शक्तो नथी,
आत्मा तेनो कर्ता थई शकतो नथी. आत्मा पोताना ज्ञानस्वभावनो कर्ता छे पण
परस्वभावनो कर्ता नथी. पुद्गलना रसनी उत्पत्ति आत्मामांथी थती नथी, पण
आत्मा तो पोतानी ज्ञानपर्यायरूपे ऊपजे छे, ते ज्ञानपर्यायनी उत्पत्ति आत्मामांथी
थाय छे, ज्ञानरूपे परिणमीने आत्मा रसने पण जाणे छे; ‘रस चाख्यो’ एम कहेतां
कांई पुद्गलना रसनो स्वाद आत्मामां आवी जतो नथी, आत्मा ते रसरूपे थई जतो
नथी, पण रसथी जुदा एवा पोताना ज्ञानरूपे परिणमतो आत्मा ते रसने जाणे छे.
आ रीते चेतनस्वरूपी आत्मा अरस छे–तेने तुं जाण...चेतनरूप थईने तुं तारा
आत्माने जाण.
खाटो–मीठो–कडवो वगेरे पुद्गलना रसने आत्मा चाखी शकतो नथी, आत्मा
तेनुं ज्ञान करी शके छे. पोते ते रसरूप थया वगर तेने जाणे छे. बहु तो तेने राग
थाय छे ते आत्मानी पर्यायमां थाय छे, पण वस्तु स्वभावथी जोतां ते राग पण
आत्माना चेतनस्वभावमां नथी; ते तो विभाव छे, चैतन्यभावथी ते जुदो छे. तेनुं
स्वामीत्व धर्मात्माने नथी. पुद्गलनुं स्वामीत्व आत्माने नथी अने रागनुं स्वामीत्व
पण आत्माने नथी. जेम सिद्धभगवान वीतरागी छे तेम चैतन्यनो स्वभाव पण
वीतरागी छे. आ रीते तारी चेतनावडे राग अने ज्ञाननुं भेदज्ञान कर, के जे शुभा–
शुभ राग थाय छे ते हुं नथी, पण हुं ज्ञायकस्वभाव जाणनारो छुं; अनंत
गुणपर्यायरूपे परिणमनारो ज्ञायकस्वभाव आत्मा हुं पोते ज छुं–एवी द्रष्टि करीने ते
रागादिथी जुदो पडनारो आत्मा पोते ज छे; पररूपे थनारो के रागरूपे थनारो आत्मा
नथी, एटले भेदज्ञानवडे तेनाथी आत्मा जुदो पडी शके छे.
जेम रसथी आत्मा जुदो छे तेम काळो–धोळो–रातो वगेरे पुद्गलना रंगथी
पण आत्मा जुदो छे. आत्मा काळो–धोळो–रातो नथी, आत्मा तो अरूपी छे, ते
पुद्गलना रूपने–रंगने उपजावतो नथी, पोते ते रूपे थतो नथी; पण तेनाथी जुदो छे.
पुद्गलथी छूटो रहीने आत्मा तेनो जाणनार छे. जो शरीरना रंगरूपे आत्मा पोते
थई जाय तो आत्मा तेनाथी छूटो ज न रही शके. ए रंग तो पुद्गलनो स्वभाव छे,
आत्मा ते–रूपे कदी थई शकतो नथी. एटले आत्मा अरूपी, चैतन्यस्वरूपथी भरेलो छे.
आत्मा पुद्गलना रसथी भिन्न चैतन्यरसथी भरेलो छे; पुद्गलना रूपथी जुदुं एवुं
चैतन्यरूप ते आत्मानुं स्वरूप छे. पुद्गलनी गंध आत्मामां नथी, आत्मा पोताना
अनंत गुणनी