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ज ग्रहण थाय छे, उपदेशना शब्दोद्वारा आत्मानुं ग्रहण थतुं नथी; अणुव्रत–महाव्रतना
शुभपरिणामथी पण आत्मानो स्वभाव जाणी शकातो नथी. व्रतादि शुभपरिणाम तो
जुदा रही जाय छे; आत्मा तेनाथी जुदो रही जाय छे. ते रागनुं स्वरूप जुदुं छे ने
आत्मानुं स्वरूप जुदुं छे. ते शुभराग तो पुण्यबंधनुं कारण छे, तेनाथी कांई भवनो
अभाव नथी थतो; भवनो अभाव तो शुद्धस्वरूपने जाणवाथी थाय छे. आवा शुद्ध
स्वरूपनुं कोई एवुं चिह्न बहारमां नथी के जे ईन्द्रियोवडे जणाई शके. चेतना ज एनुं
चिह्न छे ने ते ईन्द्रियातीत ज्ञानवडे ज जाणी शकाय छे. रागादिवडे आत्मानुं
वास्तविक स्वरूप जाणी शकातुं नथी, तेनाथी अगोचर आत्मा छे; ते आत्मा आत्मा–
वडे ज वास्तविकरूपे जाणी शकाय छे. मन–वाणीथी पेले पार आत्मा बिराजे छे, ते
पोतावडे पोताने जाणी शके छे, बीजा कोई वडे जाणी शकातो नथी. आवा आत्माने
अंतरनी चेतनावडे हे भव्य जीवो! तमे जाणो.
आत्मा तो ज्ञानस्वरूप छे; अरूपी होवा छतां सम्यग्ज्ञानचक्षु वडे आत्मा देखाय छे.
सम्यग्द्रष्टि पोताना ज्ञानस्वरूप अरूपी आत्माने देखी शके छे–जाणी शके छे–अनुभवी
शके छे. अने ते सम्यग्द्रष्टि बीजा सम्यग्द्रष्टि आत्माने पण ज्ञानवडे जाणी ल्ये छे. पण
मिथ्याद्रष्टि तो पोताने देहबुद्धि होवाथी बीजा ज्ञानीने पण देहबुद्धिथी देखे छे, एटले
बीजा ज्ञानीनेय ते ओळखतो नथी. सम्यग्द्रष्टिने देहात्मबुद्धि नथी, तेने तो चैतन्यमां
ज आत्मबुद्धि छे. तेने श्रद्धामां–ज्ञानमां–अनुभवमां देहथी जुदो आत्मा बराबर वर्ते
छे. चेतनारूप आत्माने ते अनुभवे छे; आत्मा जडना रूपवाळो नथी. आम देहथी
जुदो आत्मा धर्मीने श्रद्धामां–ज्ञानमां–अनुभवमां वर्ते छे. असंख्यप्रदेशी चैतन्य–
आकार आत्मा छे; ते चेतनालक्षणे लक्षित छे. वचनथी ते अगोचर छे पण
स्वसंवेदनथी ते गोचर छे. चेतनास्वभावनी अस्ति अने जडरूप वर्णगंध वगेरेनी
नास्ति एम बतावीने भेदज्ञानवडे आत्मानुं स्वरूप समजाव्युं छे, माटे परनी अपेक्षा
छोडीने चेतनालक्षण द्वारा पोताना स्वरूपनुं स्वसंवेदन करवुं, आत्माने चेतनावडे
अनुभवगम्य करवो. भाई, आत्मानी लगनी लगाड तो तेनुं संवेदन जरूर थशे.
जडना रस वगेरेनुं वेदन तो आत्मामां छे ज नहीं. अज्ञानी रागादिनुं वेदन