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जीवने भाववो ने तेनो अनुभव करवो–एवो उपदेश छे. ज्ञानरूप थईने तुं
ज्ञानस्वभावने भाव.... ते रूपे परिणमीने तेने भाव.–आवी भावनाथी तने
मोक्षसुख थशे.
अपेक्षा नथी, एवा निरपेक्ष ज्ञानस्वभावमां द्रष्टि मुकीने तेनी भावनाथी मति–श्रुत–
केवळज्ञान प्रगटी जाय छे. ज्ञायकस्वभाव चैतन्यथी भरेलो छे–अनंत गुण–पर्यायथी
भरेलो छे, तेमां तन्मय परिणति करीने, बहारथी जुदो पडवाथी, शरीरथी जुदो पडीने,
विभावथी जुदो पडीने, ज्ञानपदनी एकनी भावनाथी केवळज्ञान अने मुक्ति थाय छे:–
आ ज्ञानपद परमार्थ छे–जे पामी जीव मुक्ति लहे.
मळे छे. ज्ञानस्वरूपनी भावना तो मोक्षनी ज दातार छे.
हुं छुं ने बीजारूपे हुं नथी–आवुं स्व–परनुं भेदज्ञान तो साधकदशा शरू थई त्यारथी ज
थई गयुं छे.–पछी ते चैतन्यस्वरूपमां एकाग्रतारूपे परिणमता–परिणमता क्षपकश्रेणी
मांडीने केवळज्ञान थयुं त्यारे आखा लोकालोकने, तेना अनंता गुण–पर्यायने, अनंत
अविभाग प्रतिच्छेदोने बधायने प्रत्यक्ष जाणे छे एवी तेनी अद्भुत ताकात छे.
चैतन्यस्वरूपनी भावनाथी आवुं अद्भूत केवळज्ञान प्रगटे छे. माटे हे जीव! तुं एक
ज्ञायकभावनी भावना कर. वस्तुना तळिये पहोंचीने, तेना असली स्वरूपने ग्रहण
करजे, अधूरे अटकीश नहीं.
जेमां प्राप्ति न थई, सम्यक्त्वादि भाव जेमां न प्रगट्यो एवा पढवा–सांभळवाथी शुं
कार्य छे? जेनाथी भवनो अभाव न थयो–ते शुं कामनुं? जो स्वरूपनी प्राप्ति थई,