Atmadharma magazine - Ank 356
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: २६ : आत्मधर्म जेठ : २४९९ :
करे छे, ज्ञानी पोताना असली चेतनस्वरूपनुं वेदन करे छे.–आवा ज्ञानस्वरूप
जीवने भाववो ने तेनो अनुभव करवो–एवो उपदेश छे. ज्ञानरूप थईने तुं
ज्ञानस्वभावने भाव.... ते रूपे परिणमीने तेने भाव.–आवी भावनाथी तने
मोक्षसुख थशे.
ज्ञानस्वभाव एक प्रकारनो छे तेनी सम्यक् अवस्थाना मति–श्रुत वगेरे पांच
प्रकार छे. आवा पांच प्रकारे एक ज्ञानस्वभावने ज तुं भाव! ज्ञानस्वभावने कोईनी
अपेक्षा नथी, एवा निरपेक्ष ज्ञानस्वभावमां द्रष्टि मुकीने तेनी भावनाथी मति–श्रुत–
केवळज्ञान प्रगटी जाय छे. ज्ञायकस्वभाव चैतन्यथी भरेलो छे–अनंत गुण–पर्यायथी
भरेलो छे, तेमां तन्मय परिणति करीने, बहारथी जुदो पडवाथी, शरीरथी जुदो पडीने,
विभावथी जुदो पडीने, ज्ञानपदनी एकनी भावनाथी केवळज्ञान अने मुक्ति थाय छे:–
मति–श्रुत–अवधि–मन:– केवळ तेह पद एक ज खरे,
आ ज्ञानपद परमार्थ छे–जे पामी जीव मुक्ति लहे.
आवा ज्ञानपदनी भावना ते तो खरी रीते मोक्षनी ज दाता छे; ते
कांई स्वर्गनी दातार नथी, पण अधूराश रही जाय त्यां वच्चे रागना फळथी स्वर्ग
मळे छे. ज्ञानस्वरूपनी भावना तो मोक्षनी ज दातार छे.
चैतन्यपदमां अनंत–अनंत आनंदनी खाण भरी छे, अनंतकाळ सुधी काढतां–
काढतां पण ते खूटती नथी; आवुं अद्भुत चैतन्यस्वरूप छे. आवा मारा चैतन्यस्वरूपे
हुं छुं ने बीजारूपे हुं नथी–आवुं स्व–परनुं भेदज्ञान तो साधकदशा शरू थई त्यारथी ज
थई गयुं छे.–पछी ते चैतन्यस्वरूपमां एकाग्रतारूपे परिणमता–परिणमता क्षपकश्रेणी
मांडीने केवळज्ञान थयुं त्यारे आखा लोकालोकने, तेना अनंता गुण–पर्यायने, अनंत
अविभाग प्रतिच्छेदोने बधायने प्रत्यक्ष जाणे छे एवी तेनी अद्भुत ताकात छे.
चैतन्यस्वरूपनी भावनाथी आवुं अद्भूत केवळज्ञान प्रगटे छे. माटे हे जीव! तुं एक
ज्ञायकभावनी भावना कर. वस्तुना तळिये पहोंचीने, तेना असली स्वरूपने ग्रहण
करजे, अधूरे अटकीश नहीं.
अहा, आवा चैतन्यस्वरूपनी प्राप्ति ते ज शास्त्र पढवा–सूणवानुं तात्पर्य छे.
भावरहित गमे तेटला शास्त्रो पढवा–सांभळवाथी शुं फळ छे? अरे, चैतन्यस्वरूपनी
जेमां प्राप्ति न थई, सम्यक्त्वादि भाव जेमां न प्रगट्यो एवा पढवा–सांभळवाथी शुं
कार्य छे? जेनाथी भवनो अभाव न थयो–ते शुं कामनुं? जो स्वरूपनी प्राप्ति थई,