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करवानुं हतुं ते तो न थयुं, तो शास्त्रनुं पढवुं–सांभळवुं जीवने शुं कार्यकारी थयुं?
कांई नहीं, मात्र पुण्यबंध थयो, पण स्वरूपनी प्राप्ति तो न थई, भवनो अभाव न
थयो, सम्यग्दर्शन न थयुं तो जीवने शुं फळ आव्युं? भावशुद्धि वगर तो बधुं निष्फळ
छे. श्रावकपणुं के मुनिपणुं तेनुं कारण तो ‘भाव’ छे एटले के सम्यक्त्वादि
भावशुद्धिथी ज श्रावकपणुं के मनिपणुं थाय छे. जेणे स्वरूपनी प्राप्ति करी तेने ज
पढवा–सांभळवानुं फळ आव्युं. सम्यग्दर्शनपूर्वक भेदज्ञाननी सहज धारा वधतां वधतां,
भावशुद्धि वधतां वधतां, वच्चे अकर्तापणे व्रतादिना शुभभाव आवे छे. जेम जेम
स्वरूपनी दशा वधे ते प्रमाणे व्रतादि शुभपरिणाम होय छे एवो निमित्त–
नैमित्तकसंबंध छे; सहज धारा वधतां वधतां स्वानुभूति करतां करतां, रागने तोडीने
केवळज्ञान प्रगट करे छे. अहो, आवा स्वरूपने साधनारा मुनिओनी दशा अलौकिक
होय छे. एक स्वरूपनी ज दशामां आगळ वधवानुं तेमनुं ध्येय होय छे. मुनिओ
वारंवार स्वरूपमां लीन थाय छे. स्वरूपनी दशा ज तेमने मुख्य होय छे. खावुं–पीवुं–
टाढ–तडको–निद्रा वगेरे बधा परिणाम अत्यंत अल्प थई गया छे, एक स्वरूप ज
मुख्य थई गयुं छे; स्वरूपनी ज एवी मुख्यता थई गई छे के टाढ–तडको वगेरे तो
जराय लागता नथी, हाथीने कांकरी जेवुं लागे छे. ते मुनि स्वरूपमां लीन थई श्रेणी
मांडी केवळज्ञानने प्राप्त करे छे. अनंता मुनिवरोए आवी जातनी स्वरूपदशा प्राप्त करी
छे. जुओ ने, बाहुबली मुनिराज ध्यानमां ऊभा छे.... बस! ऊभा ते ऊभा! नथी
निद्रा लीधी, नथी आहार लीधो.....स्वरूपनी लीनतामां एवा स्थिर ऊभा छे के शरीर
पर वेलडीयुं वींटाणी छतां जेम ऊभा तेम ऊभा ज छे;–स्वरूपना ध्यानमां एवा
ऊभा छे के केवळज्ञान थयुं के थशे! आवी मुनिओनी दशा छे. भावशुद्धि ज आवी
दशानुं कारण छे. एक प्रकारनुं ज्ञानस्वरूप तेनी भावना करवाथी आवी दशा तेना
फळमां प्राप्त थाय छे. आ रीते शास्त्रनुं श्रवण–पठन वगेरे बधुं जो भावशुद्धि सहित
होय तो ज सफळ छे. मोक्षमार्गमां भावशुद्धिनी ज प्रधानता छे. माटे हे जीव! तुं
ज्ञानस्वरूपनी भावना वडे प्रथम भावशुद्धि (एटले के सम्यग्दर्शनादि) प्रगट कर.