: ८ : आत्मधर्म : अषाढ : २४९९
संपदा मने सहेजे मळशे, पछी बाह्यसंपदानुं शुं काम छे? अने बाह्यसंपदा खातर जो
पापकर्मनो आस्रव थतो होय तो एवी बाह्यसंपदाने मारे शुं करवी छे? हुं भगवान
आत्मा पोते बेहद चैतन्यसंपदानो भंडार छुं – एम आत्मानां सम्यक्श्रद्धाज्ञानादि कर्यां
ते श्रावकनां रत्नो छे. आवा अचिंत्य रत्ननो पटारो मारी पासे छे तो पछी मारे
बहारनी जड–लक्ष्मीनुं शुं काम छे? सम्यक्त्वादिना प्रतापे मारा अंतरमां सुख–शांतिरूप
समृद्धि वर्ते ज छे पछी मारे बीजा कोईनुं शुं काम छे? अने जेने अंतरमां शांति नथी,
सम्यग्द्रर्शन – ज्ञानादि रत्नोनी संपदा जेना अंतरमां नथी, तो बहारनी संपदाना
ढगला तेने शुं करशे? साची संपदा तो ते छे के जेनाथी आत्माने शांति मळे; (जे संप–
सुख द्ये ते साची संपदा.) एटले आत्माना सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–वीतरागता ते ज साची
संपदा छे. आवी संपदावाळा सुखिया धर्मात्मा बहारनी अनुकूळता – प्रतिकूळता बंनेने
पोताथी जुदी जाणे छे, एटले तेने तेमां हर्ष – शोक थतो नथी, ज्ञान जुदुं ने जुदुं रहे छे.
अरे जीव! पापना फळमां तुं दुःखी न था, हताश न थई जा. ते वखते प्रतिकूळ
संयोगथी ज्ञान जुदुं छे तेने ओळख. पापनो उदय आवतां चारेकोरेथी प्रतिकूळता आवी
पडे – स्त्रीपुत्र मरी जाय, भयंकर रोग– पीडा थाय, धन चाल्युं जाय, घर बळी जाय,
नाग करडे, महा अपजश – निंदा थाय, अरे! नरकनो संयोग आवी पडे (श्रेणीक वगेरे
असंख्य सम्यग्द्रष्टिजीवो नरकमां छे) – एम एकसाथे हजारो प्रतिकूळता आवे तोपण
सम्यग्द्रष्टि पोताना ज्ञानस्वरूपनी श्रद्धाने छोडतो नथी. भाई, ए संयोगमां क्यां
आत्मा छे? आत्मा तो जुदो छे. ने आत्मानो आनंद आत्मामां छे, – पछी सामग्रीमां
हर्ष –शोक शो? तारी सहनशक्ति ओछी होय तोपण आवा श्रद्धा–ज्ञान तो जरूर
राखजे, तेनाथी पण तने चैतन्यनी अपूर्व शांतिनुं वेदन रहेशे.
वळी, जेम प्रतिकूळताथी जुदापणुं कह्युं तेम पुण्यना फळमां चारेकोरनी
अनुकूळता होय – स्त्रीपुत्रादि सारां होय, नीरोग शरीर होय, धनना ढगला होय,
बंगला – मोटर होय, चारेकोर यश गवाता होय, अरे! देवलोकमां उत्कृष्ट
सर्वार्थसिद्धिनी ऋद्धि होय, तोपण तेथी शुं? ते संयोगमां क्यां आत्मा छे? आत्मा तो
जुदो छे; आत्मानो आनंद आत्मामां छे – एम धर्मी जाणे छे ने तेना ज्ञानमां तेनुं ज
वेदन वर्ते छे. पुण्यफळने कारणे ते पोताने सुखी मानता नथी. जेम कोई अरिहंतोने
तीर्थंकरप्रकृतिना उदयथी समवसरणादिनो अद्भुत संयोग होय छे, पण तेने कारणे कांई
ते अरिहंतभगवान सुखी नथी, तेमनुं सुख तो आत्माना केवळज्ञानादि परिणमनथी ज
छे, एटले ते ‘स्वयंभू’ छे, तेमां कोई बीजानी अपेक्षा नथी; तेम नीचली दशामां पण
सर्वत्र समजवुं. सम्यग्द्रष्टि पोताना शुद्ध चैतन्यपरिणमनथी ज सुखी छे, पुण्यथी के
बाह्यसंयोगथी नहीं.