Atmadharma magazine - Ank 357
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : अषाढ : २४९९
हृदयसरोवरमां केलि करनारो छे, ते जयवंत वर्ते छे, एटले के अमारी परिणतिमां ते
विद्यमान वर्ते छे. आवा परमस्वभावी आत्माने श्रद्धा–ज्ञानमां लईने तेनुं चिंतन कर्युं
त्यां समस्त परभावो ते चिंतनमांथी छूटी गया, एटले त्यां सहेजे परभावोनुं
प्रत्याख्यान थई गयुं. आवो सहजस्वभावी आत्मा जेणे जाण्यो नथी तेने तेनुं चिंतन
पण होतुं नथी एटले परभावनो त्यांग पण तेने होतो नथी. जेना श्रद्धाज्ञान तो
रागादि परभावोना ग्रहणमां ज रोकाई गयेला छे तेने परभावनुं प्रत्याख्यान केवुं?
अहा, एकवार तारा परमस्वभावने श्रद्धा–ज्ञानमां लईने तेनुं चिंतन कर. अंदर
परमहंस चैतन्यप्रभु आनंदसहित बिराजे छे. अरे, आवा आनंदमय आत्मानी
अनुभूति जो न कर तो पछी जीवनमां करवानुं शुं छे? अरे, मुंबईमां देवनारना
कत्तलखानामां लाखोना हिसाबे पशुओ कपाशे – एम सांभळता केवी कंपारी छूटे छे?
पण बापु! अनंतवार आत्मभान वगर तुं संसारमां कषायो, अने अज्ञानथी संसारमां
रखडतां ते पोते कसाईपणे एवा कारखाना अनंतवार मांड्या. हवे आवा अवसरमां
प्रमाद करवा जेवुं नथी. जेना अनुभवनी वीणानो झंकार थतां पर्यायमां अतीन्द्रिय
आनंदना वेदनथी आत्मा डोली ऊठे छे – एवो हुं पोते ज छुं – एम ज्ञानी अंतर्मुख
थईने आत्माने चिंतवे छे.
ज्ञानी आवा आत्माने चितवेछे – एम बतावीने बीजा मुमुक्षुओने पण आवा
आत्मानुं चिंतन करवानुं कह्युं छे. हजी ज्ञानमां आवा आत्मानो साचो निर्णय पण जे
न करे तेने तेनुं ध्यान के चिंतन क््यांथी होय? धर्मी तो कहे छे के अमारी अनुभूतिमां
केवळज्ञाननी मूर्ति परमस्वभावी आत्मा जयंवत वर्ते छे, ते पोते विद्यमान वर्ते छे;
अमारी श्रद्धामां अमारा ज्ञानमां अमारा वेदनमां ते आव्यो छे तेथी ते जयवंत छे, तेने
ज अमे स्वतत्त्वपणे चिंतवीए छीए, तेमां कोई परभावनो कदी प्रवेश नथी. अरे, एक
क्षण पण आवुं आत्मानुं चिंतन तो कर! आवा चिंतननी क्षण ते अपूर्व क्षण छे –
निजभावने छोडे नहि. परभाव कंई पण नव ग्रहे;
जाणे – जुए जे सर्व, ते हुं एम ज्ञानी चिंतवे. ९७.
अहा, जुओ, तो खरा, आत्मानो परमस्वभाव! पोताना सहज केवळज्ञानादि
अनंत स्वभावो सहित ते सदाय बिराजमान छे, पोताना परमभावथी ते कदी छूटयो
नथी, – आवो हुं छुं एम ज्ञानी चिंतवे छे.