Atmadharma magazine - Ank 357
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २४९९ आत्मधर्म : ११ :
परम स्वभावनी भावना ते परम भावना छे. रागादिनी भावना ते तो
विभावनी भावना छे. रागना– विकल्पना कोई अंशमां क््यांय ऊंडे ऊंडे पण मीठास
रहे, के तेना साधनथी आत्मानो अनुभव सहेलो पडशे. – एम माने, तो तेने रागथी
पार परमस्वभावनी भावना होई शके नहि. ज्ञानीने तो सदाय पोताना अंतरमां
आवा परम स्वभावनी ज सन्मुखता छे. आवा स्वभावनी भावना ते जैन
परमेश्वरनो मार्ग छे.
जेने सम्यक्त्व थयुं, जेने चैतन्यआंख ऊघडी ते पोताना अंतरमां
केवळज्ञानस्वभावी कारणपरमात्माने जयवंत देखे छे, तेनो तेने कदी विरह नथी. बापु,
आवो तारो परमस्वभाव, तेने तुं जराय मोळो करीश नहि, तेना परम अचिंत्य
महिमाने तुं जराय ढीलो करीश नहीं. परम महिमाथी तेने ग्रहण करतां (एटले के
श्रद्धामां –ज्ञानमां – चिंतनमां लेतां) रागादि समस्त परभावो छूटी जशे – ए ज
मोक्षना कारणरूप साचुं प्रत्याख्यान छे.
अहो, परमस्वभावी चैतन्यनुं स्वसंवेदन! तेमां भवनां कोई भावनो प्रवेश
नथी भव अने भवना भावो तेनाथी तद्न बहार छे. आवा चैतन्यनुं चिंतन करतां ज
मोहशत्रुनी धजा ऊडी जाय छे. पर्याय तो अंदर परमात्मस्वभावनी भावनारूपे
परिणमी गई, त्यां हवे मोह रहे शेमां? अंतर्मुख थयेली धर्मीनी पर्यायमां मोह तो
क्षयवंत छे, ने परमात्मतत्त्व जयवंत छे. ए पर्याय तो रागथी पार थईने सिद्धनां
दरबारमां पहोंची गई, तेमां हवे परभाव केवो? अहो, आवी भावनामां अपूर्व आनंद
छे, ते भावना सदा भाववा जेवी छे.
अहो, मारो आत्मा मारा अनंत ज्ञान–आनंदमय परम भावने कदी छोडतो
नथी, सदाय परमस्वभावरूप ज हुं छुं, अने संसारना कारणरूप रागादि परभावो तेने
मारो आत्मा कदी ग्रहतो नथी, ते परभावरूपे हुं कदी थई जतो नथी. वळी आ
केवळज्ञानादि भावो ते मारो स्वभाव, ने हुं तेनो आधार–एवा आधार –आधेयनो
विकल्प पण मारामां नथी, आधार– आधेयना विकल्प वगर पोताना कारणपरमात्माने
सहज अंतर्मुख अवलोकन वडे हुं सदाय जाणुं छुं. पर्याय पोते अंतर्मुख थई गई छे तेमां
कोई परभाव रही शके नहि. सदाय ते पर्याय परमस्वभाव प्रत्ये ढळेली रहे छे एटले
तेमां तन्मय थईने तेने ज ग्रहे छे ने परभावथी छूटी ने छूटी रहीने तेने छोडे छे. आ
रीते धर्मीने सदाय प्रत्याख्यान वर्ते छे. तेनी एककेय पर्याय एवी