
परमस्वभावनुं ग्रहण तेने श्रद्धा– ज्ञानमां वर्ते छे. तेनाथी विरूद्ध कोई पण रागादि
परभावने धर्मीनी पर्याय पोतामां ग्रहण करती नथी, तेने अंतर्मुख पर्यायथी बहारने
बहार ज राखे छे. – आवा स्वसंवेदनरूप चैतन्यतत्त्व हुं छुं – एम धर्मी अनुभवे छे. –
आवुं ज्ञानीनुं आत्मचिंतन तेमां बधा धर्मो समाय छे, आत्मगुणोनी अनंत समृद्धि
तेमां समाय छे. तेथी धर्मी एम अनुभवे छे के मारी श्रद्धामां आत्मा छे, मारा ज्ञानमां
आत्मा छे, मारा चारित्रमां आत्मा छे, मारी सर्व अंतर्मुख पर्यायोमां मारो शुद्ध आत्मा
ज सदाय परिपूर्ण बिराजे छे. अरे, स्वभाव ते कदी ओछो थतो हशे? केवळज्ञानादि
अनंत स्वभावोथी सदा परिपूर्ण मारो स्वभाव छे. आवा स्वभावनुं ग्रहण (अनुभव,
स्वीकार) जे पर्यायमां न होय तेमां धर्म केवो? धर्मीने श्रद्धा–ज्ञान–संयम–तप वगेरे
बधी निर्मळ पर्यायोमां पोताना परमस्वभावनी तन्मयता वर्ते छे एटले तेनुं ज ग्रहण
छे, ने बीजा बधा परभावोनो त्याग छे. – चोथा गुणस्थाने सम्यग्द्रर्शन थयुं त्यारथी
आवी दशा होय छे. आवा आत्मानुं वेदन तेनी बधी पर्यायोमां होय छे. शुं अग्नि
पोताना उष्णभावने कदी छोडे? ना; तेम चैतन्यस्वरूप आत्मा पोताना निजस्वभावोने
कदी छोडतो नथी, ने स्वभावमां कदी कोई परभावने ग्रहतो नथी, छूटो ने छूटो ज रहे
छे.
अमारुं चित्त हवे निरंतर तेमां ज लाग्युं छे; बीजे क््यांय अमारुं चित्त लागतुं नथी.
अहो, आवा अद्भुत सुखस्वरूपने अनुभव्या पछी तेमां एकमां ज चित्त लाग्युं छे. –
एमां कांई आश्चर्य नथी. अमृतनुं भोजन करनारा देवो बीजा कडवा – गंधाता
भोजननो स्वाद केम लेशे? तेम चैतन्यना महा आनंदनो स्वाद चाख्या पछी हवे
जगतना कोई पदार्थमां अमारुं चित्त लागतुं नथी.
तेटलुं मळे छे. अरे, सुख मांगवुंय न पडे, मारो आत्मा पोते सहज सुखना