सम्यग्ज्ञान मति–श्रुतरूप छे तेनो पण अपूर्व महिमा छे, ते परम आनंदमय अमृत छे,
ते मोक्षने साधनारुं छे.
ज्यारे आत्मानी सन्मुख थईने निर्विकल्प स्वसंवेदन करे छे त्यारे तेमां मन के
ईंन्द्रियनुं आलंबन रहेतुं नथी, तेटला अंशे स्वसंवेदनमां ते पण प्रत्यक्ष छे. तत्त्वार्थसूत्र
वगेरेमां ज्यां मति–श्रुतज्ञानने सामान्यपणे परोक्ष कह्या छे तेमां एटलुं विशेष समजवुं
के निर्विकल्प अनुभवदशामां तो ते ज्ञानो स्वसंवेदन प्रत्यक्ष छे, अतीन्द्रिय छे, मन–
ईन्द्रियना अवलंबन वगरना छे. आवुं अतीन्द्रिय आत्मज्ञान गृहस्थने पण थाय छे.
पण ज्ञानमां स्वसन्मुख थईने निर्विकल्प – स्वसंवेदननो काळ क्यारेक ज होय छे. तेथी
तेनी वात मुख्य न करतां सामान्य वर्णनमां मति–श्रुत ज्ञानने परोक्ष कहेवामां आव्या
छे.
थती वखते ज्ञानमां आवुं अतीन्द्रियपणुं थयुं त्यारे ते सम्यक् थयुं ते ज्ञान अतीन्द्रिय
आनंदना वेदनसहित छे. ए सिवायना काळमां मति–श्रुतज्ञान परोक्ष छे. जेमां
ईन्द्रियोनुं निमित्त होय ते ज्ञानथी तो ईन्द्रियना विषयभूत रूपी पदार्थो ज जणाय. पण
कांई अरूपी आत्मा तेनाथी न जणाय. भगवान चैतन्यसूर्य पोते पोताने प्रकाशे तेमां
जड ईन्द्रियनुं निमित्त केवुं? अतीन्द्रिय ज्ञानस्वरूप आत्मवस्तु छे ते प्रत्यक्ष ज्ञाता छे. ते
पोते ईन्द्रियज्ञानवडे जाणतो नथी, तेमज ईन्द्रियज्ञानवडे ते जाणवामां आवे तेवो नथी,
मनना अवलंबने पण ते जणाय तेवो नथी. मनना अवलंबने तो स्थूळ परवस्तु
परोक्ष जणाय छे.
वेदन थाय छे. ते अतीन्द्रिय शांतिना वेदनकाळमां सम्यग्द्रष्टि गृहस्थने चोथागुणस्थाने
पण ज्ञान अतीन्द्रिय छे तेथी प्रत्यक्ष छे. स्व तरफ झुकेलुं ज्ञान एकला आत्मसापेक्ष
होवाथी प्रत्यक्ष छे, तेमां बीजा कोईनुं अवलंबन नथी. –आवा अतीन्द्रिय ज्ञान वडे ज
मोक्षमार्ग शरू थाय छे.